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स्वकीय देवियों के साथ दिव्यभोग निदान
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इस प्रकार के पुरुष को तथारूप - त्याग-चारित्र संपन्न समण या माहण द्वारा यावत् धर्म कहना चाहिए?
हाँ, कहना चाहिए यावत् वह (उस धर्म पर) श्रद्धा, प्रतीति या रुचि रखता है? नहीं, यह संभव नहीं है।
वह (वीतराग धर्म से) अन्य धर्म में रुचि रखता है। उस धर्म की रुचि को स्वीकार कर वह निम्नांकित आचरण वाला हो जाता है -
जैसे अरण्यवासी, पर्णकुटियों में रहने वाले तापस एवं ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा चमत्कार को गुप्त रखने वाले या रहस्यमय तापस - तांत्रिक जो बहु संयत नहीं हैं (असंयत हैं), सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा से बहुविरत नहीं हैं (अविरत हैं), सत्य-असत्य मिश्रित भाषा का इस प्रकार प्रलाप - प्रयोग करते हैं - - "मुझे मत मारो, अन्यों को मारो, मुझे आदिष्ट मत करो, दूसरों को आदेश दो,
मुझे पीड़ित (क्लेशित, परितप्त) न करो, दूसरों को पीड़ा दो, . मुझे परिगृहीत मत करो - मत पकड़ो, अन्यों को पकड़ो, मुझे उद्वेजित - भयभीत न करो, दूसरों को भयभीत करो।" .
(इसके अलावा) वे स्त्री संबंधी काम-भोगों में मूर्च्छित, आसक्त और लोलुप हो जाते हैं, उनमें आकंठ निमग्न (अध्युपपन्न) हो जाते हैं यावत् काल समय आने पर काल धर्म को प्राप्त होकर किसी असुरलोक में किल्विषिक देवस्थान में उत्पन्न होते हैं।
वहाँ से विप्रमुक्त - च्यवित होकर भेड़ के समान वाणी रहित होकर मनुष्य लोक में उत्पन्न होते हैं। .. .
आयुष्मान् श्रमणो! उस निदान के दुष्परिणामस्वरूप यावत् वह केवलिप्ररूपित धर्म में न श्रद्धा कर सकता है, न प्रतीति कर सकता है और न रुचि ही रख पाता है।
. स्वकीय देवियों के साथ दिव्यभोग निदान
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते जाव माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा तहेव, संति उड्डूं देवा देवलोगंसि० णो अण्णेसिं देवाणं (अण्णे देवे) अण्णं देविं अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेंति, णो अप्पणो चेव अप्पाणं विउव्विय परियारेंति,
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