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________________ दर्शन, वंदन हेतु श्रेणिक का गमन ***** ११५ ******* ******** की ओर जाने वाले मार्ग पर आइट्ठे - आदिष्ट - आप द्वारा जैसा आदेश दिया गया, भद्वंतुआपका कल्याण हो । भावार्थ - राजा श्रेणिक ने उन पुरुषों से यह संवाद सुना, हृदय में धारण किया, हर्षित, परितुष्ट हुआ यावत् प्रसन्न होते हुए सिंहासन से उठा । इस प्रकार एतद्विषयक समस्त वर्णन राजा कोणिक (कूणिक) की तरह ज्ञातव्य है यावत् भगवान् को वंदन, नमन किया। उन पुरुषों को सत्कृत सम्मानित किया तथा जीवननिर्वाह ( आजीवन) योग्य विपुल प्रीतिदान दिया और उन्हें विदा किया। तदनंतर कोतवाल को बुलाया और इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! शीघ्र ही राजगृह नगर को भीतर और बाहर से साफ-सुथरा कर जल आदि का छिड़काव करवाओ, गोबर- मृत्तिका आदि का लेप करवाओ यावत् उसने वैसा कर राजा की सेवा में निवेदित किया । तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने सेनापति को बुलाया और उसे इस प्रकार कहा - देवानुप्रिय ! शीघ्र ही हस्ती, अश्व, रथ एवं पदाति युक्त चतुरंगिणी सेना को सुसज्ज करो यावत् उसने वैसा संपादित कर सेवा में निवेदन किया । इसके बाद राजा श्रेणिक ने यानशाला के अधिकारी को आहूत किया ( बुलाया ) और उसे कहा- देवानुप्रिय ! धार्मिक कार्यों में प्रयोक्तव्य उत्तम रथ को अविलम्ब तैयार कर यहाँ उपस्थित करो। मेरे आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न हो जाने पर मुझे सूचित करो । राजा श्रेणिक द्वारा यों आदिष्ट किए जाने पर यानशाला का प्रबंधक हर्षित, परितुष्ट यावत् प्रसन्नता पूर्वक जहाँ यानशाला थी उधर चला, यानशाला में प्रवेश किया, यान का अवलोकन किया, यान को (चौक से ) नीचे उतारा, उस पर (रज आदि से बचाने हेतु) डाले गए वस्त्र को हटाया। रथ को स्वच्छ किया । रथ को बाहर निकाल कर उत्तम उपकरणों द्वारा सज्जित, सुशोभित किया । यान को उपयुक्त स्थान पर खड़ा किया | फिर वह वाहनशाला में प्रविष्ट हुआ। वाहनों (रथ को खींचने में प्रयुक्त होने वाले अश्व आदि) को देखा, उनको स्वच्छ किया, सस्नेह हाथ से सहलाया, उन्हें बाहर निकाला तथा आवरक वस्त्र को हटाया। वाहनों (अश्वों) को उत्तम पात्र आदि से मंडित, सुशोभित किया । उन्हें यान में जोड़ा तथा उसे यानशाला से बाहर निकालने के मार्ग पर खड़ा किया । तदनंतर चाबुक तथा चाबुक धारण करने वाले - सारथी को उस पर बिठलाया एवं अन्तःपुर की ओर आने वाले मार्ग से होता हुआ, जहाँ राजा श्रेणिक था, वहाँ आया, अंजलि बांधे यावत् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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