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________________ १०२ . दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - नवम दशा AkkkakAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAkkkkk आचारवान्, सिया - स्यात् - हो, आयारगुत्तो - पंचाचार पालक, सुद्धप्पा - शुद्धात्मा, ठिच्चा - स्थित होकर, अणुत्तरे - जिससे श्रेष्ठ कोई न हो, सए - अपने, आसीविसो - सर्प विशेष, सुचत्तदोसे - दोषों का सर्वथा त्यागी, धम्मट्ठी - धर्मार्थी - श्रुतचारित्ररूपधर्मानुष्ठाता, विदितापरे - मोक्षस्वरूपज्ञ, पेच्चा - भवान्तर में, सुगई - उत्तम गति, अभिसमागम्म - जानकर, सूरा - परीषह और उपसर्ग सहने में समर्थ, दढपरक्कमा - दृढ आत्मपराक्रम युक्त, सव्वमोहविणिम्मुक्का - समग्र मोहनीय कर्म से छूटे हुए, जाइमरणमइच्छिया - जन्म-मरण को अतिक्रान्त किए हुए। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर ने समग्र साधु-साध्वियों को संबोधित कर, इस प्रकार कहा - "आर्यों! जो स्त्री या पुरुष (निम्नांकित) तीस मोहनीय स्थानों को बार-बार सेवित करता है, तीव्र परिणामपूर्वक सेवित करता है, वह मोहनीय कर्म का बंध करता है। वे इस प्रकार (निम्न गाथाओं में वर्णित) हैं - जो कोई त्रस प्राणियों को जल में डुबोकर या जल में आक्रान्त कर मारता है, वह . महामोहनीय कर्म का बंध करता है॥१॥ जो प्राणियों के मुख, नासिका आदि श्वासोच्छ्वास लेने के द्वारों. (स्त्रोतों) को हाथ । आदि से अवरूद्ध कर उन्हें अन्तर्वेदनामय कराहट के साथ मरने को विवश करता है, वह . महामोहनीय बंध का उपार्जन करता है॥२॥ - जो बहुत से प्राणियों को एक स्थान पर रोक कर घेर कर, वहाँ आग लगा कर उसके धुएँ से (दम घुटवा कर) मारता है, वह महामोहकर्म का बंध करता है॥३॥ "मस्तक के मर्म स्थान पर चोट करने से यह प्राणी मर जायेगा" - मन में ऐसा दुश्चिंतन कर जो उसके मस्तक का भेदन कर फोड़ डालता है, वह महामोहनीय बंध संचीर्ण करता है॥४॥ __ जो गीले चर्म से - चमड़े की बाध से किसी के सिर को आवेष्टित कर देता है - लपेट देता है, वह ऐसे अशुभ.परिणामों के फलस्वरूप महामोहनीय कर्म का बंध करता है॥५॥ जो किसी प्राणी को मनोयोगपूर्वक - बुरे इरादे के साथ तीखी नोक वाले शस्त्र को ०गीला चमड़ा जब सूखता है तो अत्यधिक खिंचाव उत्पन्न करता है। इससे प्राणी का सिर आदि अंग संकुचित (Compress) होता है, जिससे अत्यंत पीड़ा होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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