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________________ एकारात्रिकी भिक्षुप्रतिमा kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk वहाँ आ जाएं या कुछ भी प्रवृत्ति करे तो वह उनकी ओर सर्वथा उदासीन एवं संकल्पविकल्प रहित रहता हुआ, धर्मध्यान में तन्मय बना रहता है। प्रतिमाधारी का क्षण-क्षण यह प्रयत्न रहता है कि उसकी मानसिकता सर्वथा आत्मोन्मुखी हो, देहोन्मुखता से वह पृथक् होता जाता है। इसीलिए यह विधान हुआ है कि चलते समय उसके पैर में कांटा आदि गड (चुभ) ज़ाए, नेत्रों में सूक्ष्म कीटाणु, रजकण आदि गिर जाए तो वह उन्हें नहीं निकालता उस ओर से सर्वथा अप्रभावित रहता है, समभाव से वेदना को सहन करता है। देहातीतावस्था प्राप्त करने की दिशा में यह नि:संदेह एक बड़ा ही प्रशस्त उपक्रम है। राजेन्द्र कोष के 'भिक्खुपडिमा' शब्द में (पृष्ठ १५७६) हरिभद्रसूरि के पंचाशक ग्रन्थ के आधार से भिक्षु प्रतिमा वालों का जघन्य श्रुतज्ञान नववें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु बताया है - 'णवमस्स तइयवत्थु, होइ जहण्णो सुयाहिगमो॥ ५॥' गच्छ में तो परिकर्म करते हैं और गच्छ निर्गत होकर प्रतिमा वहन करते हैं। अतः प्रतिमाधारी एकलविहारी ही होते हैं। एकलविहारी - एकलविहारी के नियमों में प्रायः समानता समझी जाती है। यवमध्या, वज्रमध्याचन्द्रप्रतिमा भी गच्छ निर्गत होकर ही की जाती है। इन प्रतिमाओं के लिए राजेन्द्र कोष के 'पडिमा' शब्द में (पृ०३३४) व्यवहार भाष्य के आधार से तीन संहनन ही माने हैं - 'संघयण परियाए, सुत्ते अत्थे य जो भवे वलिओ। ... सो पडिम पडिवाइजवमझं वइरमज्झं च॥॥' संहमने आदयत्रयान्यतमस्मिन् ठाणांग के आठवें ठाणे की टीका में भी एकलविहारी की योग्यता के 'बहुस्सुए' शब्द का अर्थ - 'जघन्य नववें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु' किया है। इस प्रकार अर्थों (ग्रन्थों) में उपर्युक्त प्रमाण मिलते हैं। आगम के मूलपाठ में देखने में नहीं आये हैं। भिक्षु-प्रतिमा आराधन के लिए प्रारंभ के तीन संहनन, २० वर्ष की संयमपर्याय, २९ वर्ष की उम्र तथा जघन्य ९वें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का ज्ञान होना आवश्यक है। अनेक प्रकार की साधनाएँ व अभ्यास भी प्रतिमा धारण के पूर्व किये जाते है। उनमें उत्तीर्ण होने पर प्रतिमा धारण के लिए आज्ञा मिलती है। अतः वर्तमान में इन भिक्षु प्रतिमाओं का आराधन नहीं किया जा सकता है अर्थात् इनका विच्छेद माना गया है। .. ॥दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की सातवीं दशा समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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