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________________ ९२ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - सप्तम दशा kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkattadkatrikakkatakkarutakti *** *** भिक्षु प्रतिमाओं की आराधना शीतकाल के चार मास तथा ग्रीष्मकाल के चार मास - इन आठ महिनों में की जाती है। चातुर्मास काल में इनकी आराधना का विधान नहीं है। भिक्षु की इन बारह प्रतिमाओं के संबंध में टीकाकार तो पहली प्रतिमा एक महीने की तथा एक महीने की साधना। इसी तरह दूसरी से सातवीं प्रतिमा तक यावत् सात महीने की प्रतिमा तथा सात महीने की साधना। ८, ९, १० वी प्रतिमा के ७-७ दिन। ११वीं में बेला - २ दिन। बारहवीं में तेला - ३ दिन। इस प्रकार दो प्रतिमा (१-२) प्रथम शेषकाल में। तीसरी प्रतिमा दूसरे शेषकाल में। चौथी प्रतिमा तीसरे शेषकाल में। पांचवीं की साधना चौथे शेषकाल में तथा पांचवें शेषकाल में। छट्ठी की साधना छटे तथा छट्ठी प्रतिमा सातवें शेषकाल में। सातवीं की साधना आठवें शेषकाल में तथा सातवीं प्रतिमा नौवें शेषकाल में पूरी होती है तथा शेष प्रतिमाएं दंशवें शेषकाल में पूरी होती है। १० शेषकाल (अनेक वर्ष) से सब प्रतिमाएं पूरी होना मानते हैं। किन्तु शास्त्रों में इससे कम पर्याय वाले मुनियों के भी सब प्रतिमाओं का वर्णन आया है तथा धारणा में तो सात प्रतिमा के ७ महीने तथा ८, ९, १०वीं के ७-७ दिन ११वीं के ३ दिन। बारहवीं के ४ दिन, सब मिलाकर ७ महीने २८ दिन। एक ही शेषकाल में पूरी हो जाती है। १२वीं भिक्षुप्रतिमा में एक रात्रि बताई है, वह तेले के तप में ४ रात्रि होती है, उनमें से किसी भी एक रात्रि को समझना। एक विशेष बात यह है कि. भिक्षु प्रतिमा की आराधना में मुख्य लक्ष्य आत्मकल्याणमूलक होता है। वहाँ पर-कल्याण गौण है, इसीलिए प्रतिमाधारी भिक्षु को किसी ग्रामादि स्थान में एक या दो दिन से अधिक ठहरना कल्प्य नहीं है। वह निरन्तर आठ मास पर्यन्त विहरणशील रहता है। यह मर्यादा अनुलंघनीय है। इसका उल्लंघन होने पर तप या दीक्षा-छेद का प्रायश्चित्त आता है। इसी कारण इन प्रतिमाओं की आराधना चातुर्मास काल में नहीं होती। प्रतिमाओं के आराधना काल में भिक्षु प्रायः मौन का ही अवलम्बन करता है। जब कभी बोलना आवश्यक हो तब बहुत ही सीमित बोलता है। चलते समय किसी कारणवश बोलने की अपेक्षा हो तो वह रुककर बोल सकता है। वह अपने विहरणकाल में धर्मोपदेश नहीं देता, मौन रहता हुआ आत्मचिन्तन, आत्मपर्यालोचन आदि में संलग्न रहता है। प्रतिमाधारी भिक्षु ग्राम, नगर आदि के बाहर उद्यान में, खुले मकान में या पेड़ के नीचे एकान्त स्थान में ठहरता है, आत्माराधन में लीन रहता है। संयोगवश यदि कोई भी स्त्री-पुरुष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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