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________________ ८६ *★★★★★★★★★★★ ******** अहियासेइ, कप्पड़ से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा उत्ताणगस्स वा पासिल्लगस्स वा णेसज्जियस्स वा ठाणं ठाइत्तए, तत्थ दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा उवसग्गा समुप्पज्जेज्जा तेणं उवसग्गा पयलिज्ज वा पवडेज्ज वा णो से कप्पड़ पयलित्तए वा पवडित्तए वा, तत्थ णं उच्चारपासवणं उब्बाहिज्जा णो से कप्पड़ उच्चारपासवणं उगिहित्तए, कप्पड़ से पुव्वपडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिट्ठवित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए, एवं खलु एसा पढमा सत्त इंदिया भिक्खुपडिमा अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ॥ ८ ॥ २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - रायहाणीए - राजधानी में, उत्ताण- पीठ के बल सोना, पासिल्लगस्सएक पार्श्वस्थ एक पसवाड़े सोना, सज्जियस्स जमीन पर पुत टिकाकर - बैठक लगाकर स्थित होना, पयलिज्ज प्रचालित करे, पवडेज्ज प्रपातित करे, पयलित्तए प्रचलित - विचलित होना, पवडित्तए - पतित होना, उब्बाहिज्जा - बाधा उत्पन्न हो । भावार्थ - प्रथम सप्तरात्रिदिवसीय सात रात-दिन की (अष्टम) भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार परीषह, उपसर्ग आदि के उपस्थित होने पर देह के ममत्व से सर्वथा रहित होता है यावत् आत्म बल पूर्वक सहन करना है। वह चौविहार रखता हुआ ग्राम या राजधानी के बाहर उत्तान, पार्श्वस्थ अथवा नैषधिक आसन में स्थित रहे । वहाँ देव, मनुष्य या तिर्यंच के उपसर्ग उत्पन्न हों, प्रचालित हों, प्रपातित हों, तो उनसे प्रचलित या प्रपलित होना - ध्यान साधना से च्युत होना नहीं कल्पता है । उस समय उसके मल-मूत्र की शंका उत्पन्न हो जाय तो उन्हें रोकना नहीं कल्पता अपितु पूर्व - प्रतिलेखित स्थंडिल भूमि पर उच्चार - प्रस्रवण को यथाविधि परिष्ठापित कर - उनसे निवृत्त होकर, यथाविधि अपने स्थान पर अवस्थित हो जाए । दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - सप्तम दशा - Jain Education International - - - इस प्रकार अनगार इस प्रथम सप्तअहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का यथासूत्र यावत् जिनाज्ञा के अनुसार परिपालक होता है । द्वितीय सप्तअहोरात्रिक प्रतिमा - - एवं दोच्चा सत्तराइंदिया [ या ]वि णवरं दंडा[ य ] इयस्स वा लग[ डसाइ ] डाइयस्स वा उक्कुडुयस्स वा ठाणं ठाइत्तए, सेसं तं चेव जाव अणुपालित्ता भवइ ॥ ९ ॥ २८ ॥ दण्डासन कठिन शब्दार्थ - दंडाइयस्स दण्ड के समान लंबा होकर सोना, लगडाइयस्स - लगण्डशायी मस्तक एवं पैर की ऐड़ी को जमीन पर लगाकर, मध्य भाग - - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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