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प्रथम सप्तअहोरात्रिक भिक्षुप्रतिमा
८५ .. *KARAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAxxx मोक्षमार्गानुरूप, अहातच्चं - यथातत्त्व - अर्हत् प्रतिपादित तत्त्व के अनुसार, अहासम्मं - यथासमय - समभाव पूर्वक फासित्ता - स्पर्श कर, पालित्ता - पालन कर, सोहित्ता - अतिचार पंक प्रक्षालन द्वारा शोधित कर, तीरित्ता - परिपूर्ण कर, किट्टित्ता - आत्मिक आह्लाद अनुभूत कर, आणाए - अर्हत् आज्ञा के अनुसार, आराहइत्ता - आराधना करने वाला।
भावार्थ - इस प्रकार (पूर्वोक्त विधि पूर्वक) एक मासिकी भिक्षु प्रतिमा का सूत्र, कल्प, मार्ग, तत्त्व एवं समभाव पूर्वक देह से स्पर्श कर - भलीभांति आत्मसात् करता हुआ, उसका परिपालन, शोधन, परिपूर्ण करता हुआ, जिनाज्ञा का अनुपालक होता है - आराधक होता है।
द्वितीय यावत् द्वादश भिक्षु प्रतिमाएँ दोमासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स णिच्चं वोसट्टकाए जाव दो दत्तीओ॥२॥२१॥
तिमासियं तिण्णि दंसीओ॥३॥२२॥ . चाउमासियं चत्तारि दत्तीओ॥४॥२३॥ पंचमासियं पंच दत्तीओ॥५॥२४॥ . छमारियं छ दत्तीओ॥६॥२५॥
सत्तमासियं सत्त दत्तीओ॥७॥जेत्तिया मासिया तेत्तिया दत्तीओ॥२६॥ .. भावार्थ - द्वैमासिकी भिक्षु प्रतिमा की आराधना में संलग्न अनगार नित्य परीषह, उपसर्ग के उपस्थित होने पर भी काय-ममत्व का त्यागी होता है यावत् उसे द्विदत्तिक आहार-पानी ग्रहण करना कल्पता है।
त्रैमासिकी भिक्षु प्रतिमा में तीन दत्ति, चतुर्मासिकी में चार दत्ति, पंचमासिकी में पांच दत्ति, षट्मासिकी में छह दत्ति, सप्तमासिकी में सात दत्ति, इस प्रकार जितने-जितने मासिक की प्रतिमाएं हों, उन-उन में उतने-उतने दत्ति आहार-पानी का विधान है।
यहाँ 'द्वैमासिकी' शब्द से - 'दूसरी एक मासिकी' अर्थ समझना चाहिए। इसी प्रकार सप्तमासिकी तक सभी प्रतिमाएं एक-एक मास की समझनी चाहिए।
प्रथम सप्तअहोरात्रिक भिक्षप्रतिमा पढमं सत्तराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स णिच्चं वोसट्ठकाए जाव
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