SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूर्यास्तोपरांत विहार निषेध ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk ने तो उनकी कष्ट सहिष्णुता बताने के लिए ही 'आँख से रजकण आदि का नहीं निकालना' बताया है। जिस प्रकार स्थविरकल्पी शरीर पर आई हुई सचित्त रज आदि को हटाकर भिक्षार्थ जाते हैं किन्तु प्रतिमाधारी उस रज को इधर-उधर हटाने रूप कष्ट नहीं देकर जब तक वह पसीने आदि से अचित्त नहीं बन जाती है, तब तक गोचरी आदि घूमना बंद करके स्थिरकाय हो जाते हैं। जब एकेन्द्रिय की रक्षा का भी इतना ध्यान रखते हैं, तो त्रस की रक्षा का तो ध्यान रखते ही होंगे, ऐसा सहज अनुमान किया जा सकता है। अत: आगमीय विधान में उनकी कष्ट सहिष्णुता बताई गई है। इसे अनुकम्पा पर कुठाराघात नहीं समझना चाहिए। - सूर्यास्तोपरांत विहार निषेध मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स जत्थेव सूरिए अस्थमेजा तत्थ एव जलंसि वा थलंसि वा दुग्गंसि वा णिण्णंसि वा पव्वयंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा कप्पड़ से तं रयणिं तत्थेव उवांइणावित्तए णो से कप्पइ पयमवि गमित्तए, कप्पइ से कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाईणाभिमुहस्स वा दाहिणाभिमुहस्स वा पडीणाभिमुहस्स वा उत्तराभिमुहस्स वा अहारियं रीइत्तए॥१४॥ - कठिन शब्दार्थ - जत्थेव - जहाँ पर भी, सूरिए - सूर्य, अस्थमेजा - अस्त हो जाए - छिप जाए, थलंसि - स्थल पर, दुग्गंसि - दुर्गम स्थान, णिण्णंसि - निम्न स्थान, पव्वयंसि - पर्वत, विसमंसि - विषम - ऊबड़-खाबड़ स्थान, गड्डाए - गर्त, दरीए - गुफा, उवाइणावित्तए - चलने का निषेध, कल्लं - प्रातः काल, पाउप्पभायाए - सूर्य निकलने पर। भावार्थ - मासिकी भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार के पादविहार के अन्तर्गत जहाँ पर भी सूर्यास्त हो जाए, चाहें जलपूर्ण स्थान, स्थल, दुर्गम स्थान, निम्न स्थान, पर्वत, ऊबड़-खाबड़ भूमि गर्त, या गुफा हो तो भी उसे रात भर उसी स्थान पर रहना कल्पता है। जरा भी उसे अतिक्रांत करना - आगे बढ़ना नहीं कल्पता। रात्रि व्यतित होने पर यावत् सूर्योदय के पश्चात् अनगार को पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होते हुए - यथापेक्षित दिशा में ईर्या समिति पूर्वक आगे बढ़ना कल्पता है। यहाँ सूत्र में आए हुए 'जलंसि' शब्द का आशय 'खुले आकाश वाले स्थान' समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy