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________________ ८० ८० .......... . दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - सप्तम दशा ★★★★★★★ idtkdkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk कठिन शब्दार्थ - पायंसि - पैर में, खाणू - स्थाणु - लकड़ी का टुकड़ा, कंटए - कंटक, हीरए - कांच का टुकड़ा, सक्करए - कंकड़, अणुपविसेजा - अनुप्रविष्ट हो जाए - चुभ जाए, णीहरित्तए - निकालना, विसोहित्तए - विशोधित - सम्मार्जित करना, अहारियं - ईर्यापूर्वक। भावार्थ - मासिकी प्रतिमाधारी भिक्षु के पैर में यदि स्थाणु, कण्टक, काँच अथवा कंकड़ चुभ जाए तो उसे निकालना या सम्मार्जित करना नहीं कल्पता। उसे ईर्यापूर्वक चलते रहना कल्पता है। नेत्रापतित सूक्ष्म जीव आदि को निकालने का निषेध - मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स जाव अच्छिंसि पाणाणि वा बीयाणि वा रए वा परियावज्जेज्जा, णो से कप्पइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, कप्पइ से अहारियं रीइत्तए॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - अच्छिंसि - आँख में, पाणाणि - सूक्ष्म प्राणी, बीयाणि - बीज, रए - रज - धूल, परियावज्जेजा - (पर्यापद्येरन्) पर्यापन्न हो जाए - गिर जाए। भावार्थ - मासिकी भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार को यावत् आँख में सूक्ष्म जीव, बीज, रजकण आदि गिर जाए तो उसे निकालना या उस स्थान को सम्मार्जित करना (मसलना) नहीं कल्पता किन्तु उसे ईर्या पूर्वक सावधानी से चलते रहना कल्पता है। - विवेचन - प्रतिमाधारी दृढ़ मनोबली होते हैं। शरीर की शुश्रुषा एवं ममत्व के त्यागी होते हैं। अपनी तरफ से किसी भी प्राणी की विराधना नहीं होने देते हैं। आँख में प्राणी के गिर जाने पर उसके जीवित रहने तक पलकें भी नहीं झपकाते हैं। यदि वह आंख के मलादि में फंस गया हो एवं छटपटा रहा हो, नहीं निकल पा रहा हो, निकालना संभव हो तो उसकी अनुकम्पा की दृष्टि से निकाल सकते हैं। क्योंकि जिस प्रकार आग लग जाने पर भी वे तो नहीं निकलते हैं, किन्तु उन्हें कोई जबरदस्ती निकाल रहा हो तो वे ईर्यासमिति पूर्वक निकल जाते हैं। सर्प, सिंहादि के भयभीत होने पर मार्ग से हट जाते हैं। इन सबके पीछे स्वयं के शरीर की रक्षा की भावना नहीं होकर उन जीवों की अनुकम्पा की भावना ही है। इसी प्रकार आँखों में पड़े हुए जीव के बचने की संभावना हो, तो स्वयं की वेदना की उपशांति की दृष्टि से नहीं किन्तु उस जीवं की रक्षा की दृष्टि से निकालने की ही संभावना लगती है। आगमकारों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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