SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वंदना - खमासमणो ( द्वादशावर्त्त वंदन ) विधि है । अतः वह भी नैषेधिकी कहलाता है। इतना ही नहीं निषिद्ध आचरण से निवृत्त शरीर की क्रिया भी नैषेधिकी कहलाती है अथवा निषेध का अर्थ त्याग है । मानव शरीर त्याग के लिए ही है। अतः वह नैषेधिकी कहलाता है । अथवा जीव हिंसादि पापाचरणों का निषेध - निवृत्ति करना ही, जिसका प्रयोजन है वह शरीर नैषेधिकी कहलाता है । यापनीय, नैषेधिकी का विशेषण है, जिसका अर्थ है - शारीरिक शक्ति । अतः 'जावणिञ्जाए' का अर्थ होता है कि - मैं अपनी शक्ति से त्याग प्रधान नैषेधिकी शरीर से वंदन करना चाहता हूँ । मिउग्गहं - मितावग्रह का अर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि इस प्रकार करते हैं - 'चतुर्दिश - मिहाचार्यस्य आत्मप्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः । तमनुज्ञा विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते' अर्थात् आचार्य (गुरुदेव ) के चारों दिशाओं में आत्मप्रमाण अर्थात् शरीरप्रमाण साढ़े तीन हाथ का क्षेत्रावग्रह होता है इस अवग्रह में गुरु की आज्ञा बिना प्रवेश करना निषिद्ध है। इसी बात को प्रवचन - सारोद्धार के वंदन द्वार में आचार्य नेमीचन्द्रसूरि स्पष्ट करते हैं - आयप्पमाणमित्तो, चउदिसिं होई उग्गहो गुरुणो । अणणुन्नायस्स सया, न कप्पए तत्थ पविसेउं ॥ १२६ ॥ . अहोकार्य (अधः काय) शरीर का सबसे नीचे का भाग अधःकाय है, अतः वे चरण ही हैं। कायसंफासं (काया संस्पर्श) काया से अच्छी तरह स्पर्श करना। १. आचार्य जिनदास अर्थ करते हैं- 'अप्पणो काएण हत्थेहि फुसिस्सामि, २. आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार- 'कायेन निजदेहेन संस्पर्शः " । पूरे शरीर से स्पर्श अर्थात् मस्तक के द्वारा स्पर्श करता हूँ। क्योंकि मस्तक शरीर का मुख्य अंग है । यहाँ शरीर से स्पर्श करने का तात्पर्य सारा शरीर समर्पित करता हूँ और उपलक्षण से वचन और मन का भी अर्पण समझ लेना चाहिए । 1 जत्ता (यात्रा) प्रवृत्ति है वही यात्रा है। - अप्पकिलंताणं" - यहाँ अप्प (अल्प) शब्द स्तोकवाची न समझ कर अभाव वाचक समझना चाहिए। अतः अर्थ होगा ग्लानिरहित - बाधा रहित । तप, नियम, संयम, ध्यान, स्वाध्यायादि योग की साधना में यतना जवणिज्जं (यापनीय) ५१ Jain Education International - शरीर इन्द्रिय और नोइन्द्रिय ( मन ) की पीड़ा से रहित है अर्थात् दोनों वश में है । भगवती सूत्र (सोमिल पृच्छा) में नोइन्द्रिय से तात्पर्य कषायोपशान्ति से है अर्थात् इन्द्रिय (विषय) और कषाय शरीर को बाधा तो नहीं देते हैं। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy