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चतुर्विंशतिस्तव - चतुर्विंशतिस्तव सूत्र (लोगस्स का पाठ)
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तीर्थ शब्द का अर्थ इस प्रकार है - 'तीर्यतेऽनेन इति तीर्थम्' अर्थात् जिसके द्वारा संसार समुद्र से तिरा जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। तीर्थ के चार भेद हैं - १. साधु २. साध्वी ३. श्रावक और ४. श्राविका। संसार समुद्र से तिराने वाला, दुर्गति से उद्धार करने वाला और सद्गति में पहुँचाने वाला एक धर्म है। अहिंसा, सत्य आदि धर्म को धारण करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका होते हैं। ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वालों को 'तीर्थंकर' कहते हैं।
जिणे (जिन) - जिन का अर्थ है - 'राग-द्वेष कषायेन्द्रिय परिषहोपसर्गाष्ट प्रकार कर्म जेतृत्वाजिनाः' अर्थात् राग-द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परीषह, उपसर्ग अष्टविध कर्म को जो जीतता है, उसे जिन कहते हैं।
कित्तिय - कीर्तित - वाणी द्वारा स्तुति करना कीर्तन कहलाता है। ___ वंदिय - वन्दित - काया से स्तुत। शरीर द्वारा पंचांग नमस्कार करना वंदन कहलाता है।
महिया - महित - मन से भाव पूजा करना। पूजा दो प्रकार की है - द्रव्य पूजा और भाव पूजा। शरीर और वचन को बाह्य विषयों से रोक कर प्रभु वंदना में नियुक्त करना द्रव्य पूजा है तथा मन, वचन, काया को बाह्य भोगासक्ति से हटा कर प्रभु के चरणों में अर्पण करना भाव पूजा. है। भाव पूजा भाव पुष्पों से की जाती है। भाव पुष्प ये हैं -
अहिंसा सत्यमस्तेय, ब्रह्मचर्यमसंगता। गुरु भक्तिस्तपो ज्ञान, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते॥१॥ - आचार्य हरिभद्र
अर्थात् - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, गुरुभक्ति, तपस्या और ज्ञान, ये श्रेष्ठ भाव पूजा के पुष्प कहलाते हैं।
कोई कोई 'महित' का अर्थ पुष्प आदि से पूजित करते हैं जो सर्वथा असंगत है क्योंकि पुष्पादि सावद्य द्रव्यों से की हुई पूजा हिंसा प्रधान होने के कारण वीतरागियों की नहीं हो सकती और आगम में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है।
__ आरुग्ग-बोहिलाभं - आरुग्ग अर्थात् आरोग्य - आत्म स्वास्थ्य या आत्म शांति। आरोग्य दो प्रकार का होता है - १. द्रव्य आरोग्य - ज्वर आदि रोगों से रहित होना और २.-- भाव आरोग्य - कर्म विकारों से रहित होना। यहां आरोग्य का अभिप्राय भाव आरोग्य से है। अतः आरुग्ग बोहिलाभ का अर्थ है - आरोग्य अर्थात् मोक्ष के लिए बोधि-सम्यग् दर्शन आदि का लाभ।
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