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________________ चडवीसत्थवं णामं बीयं अज्झयणं चतुर्विंशतिस्तव नामक द्वितीय अध्ययन उत्थानिका - प्रथम सामायिक अध्ययन के बाद दूसरा अध्ययन है - चतुर्विंशतिस्तव । सावद्य योग से विरति सामायिक है। सावद्य योग से निवृत्ति प्राप्त करने के लिये - जीवन को रागद्वेष रहित - समभाव युक्त विशुद्ध बनाने के लिए साधक को सर्वोत्कृष्ट जीवन वाले महापुरुषों आलम्बन की आवश्यकता रहती है। चौबीस तीर्थंकर - जो रागद्वेष रहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुष हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, त्याग वैराग्य और संयम साधना के महान् आदर्श हैं, उनकी स्तुति करना, उनके गुणों का कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' कहलाता है। तीर्थंकर, वीतराग देवों की स्तुति करने से साधक को महान् आध्यात्मिक बल और आदर्श जीवन की प्रेरणा मिलती है। अहंकार का नाश होता है । गुणों के प्रति अनुराग बढ़ता है और साधना का मार्ग प्रशस्त बनता है। शुभ भावों से दर्शन विशुद्धि होती है और दर्शन विशुद्धि से आत्मा कर्म मल से रहित होकर शुद्ध निर्मल हो जाती है परमात्म पद को प्राप्त कर लेती है और वीतराग प्रभु के समान बन जाती है। चतुर्विंशतिस्तव के फल के लिये उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ में गौतमस्वामी ने प्रभु से पृच्छा की है - चउव्वीसत्थएणं, भंते! जीवे किं जणयइ ? हे भगवन् ! चतुर्विंशतिस्तव से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? प्रभु फरमाते हैं - चडवीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ । हे गौतम! चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन - विशुद्धि होती है। समभाव में स्थित आत्मा ही वीतराग प्रभु के गुणों को जान सकती है उनकी प्रशंसा कर सकती है अर्थात् जब सामायिक की प्राप्ति हो जाती है तब ही भावपूर्वक तीर्थंकरों की स्तुति की जा सकती है अतएव सामायिक अध्ययन के बाद दूसरा चतुर्विंशतिस्तव अध्ययन रखा गया है। प्रथम अध्ययन में सावद्य योग की निवृत्ति रूप सामायिक का निरूपण करके सूत्रकार अब चतुर्विंशतिस्तव रूप इस द्वितीय अध्ययन में समस्त सावद्ययोगों की निवृत्ति के उपदेशक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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