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सामायिक - नमस्कार सूत्र
किया नमस्कार, सव्वपावप्पणासणो - सभी पापों का नाश करने वाला, मंगलाणं - मंगलों में, च - और, सव्वेसिं - सभी, पढमं - प्रथम, हवइ - है, मंगलं - मंगल।
. भावार्थ - श्री अर्हन्त भगवान्, श्री सिद्ध भगवान्, श्री आचार्य महाराज, श्री उपाध्याय महाराज और लोक में वर्तमान सभी साधु मुनिराज - इन पांच परमेष्ठियों को मेरा नमस्कार हो।
उक्त पंच परमेष्ठियों को किया हुआ नमस्कार संपूर्ण पापों का नाश करने वाला है और सभी प्रकार के लौकिक और लोकोत्तर मंगलों में प्रधान मंगल है।
विवेचन - जैन धर्म अध्यात्म प्रधान धर्म है। जैन धर्म में नमस्कार सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सूत्र से बढ कर दूसरा कोई सूत्र नहीं है क्योंकि इस सूत्र में चौदह पूर्वो का सार है। इसमें बिना किसी सांप्रदायिक भेदभाव के, बिना किसी देश, जाति अथवा धर्म की विशेषता के केवल गुण पूजा का महत्त्व बताया गया है। . नमस्कार सूत्र में पांच पदों को नमस्कार किया गया है। योग्यता से प्राप्त हुए (पूज्य) स्थान को 'पद' कहते हैं। पांच पद ये हैं - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।।
.. १. अर्हन्त - जो इन्द्रों द्वारा बनाये हुए आठ महाप्रातिहार्य (अशोक वृक्ष आदि) रूप पूजा वंदन, नमस्कार एवं सत्कार के योग्य हैं और जो सिद्धि गमन के योग्य हैं, उनको अर्हन्त कहते हैं। अर्हन्त के अन्य पर्यायवाची शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं -
(१) अरिहन्त - कर्म रूपी अरि-शत्रुओं का हनन-विनाश करने वालों को 'अरिहन्त' कहते हैं। (२) अरहन्त - 'रह' धातु गत्यर्थक होने से वीतराग हो जाने के कारण जो किसी • भी प्रकार की आसक्ति में नहीं जाते हैं अथवा 'रहि' धातु छोड़ने के अर्थ में होने से
जो रागादि हेतु भूत मनोज्ञ अमनोज्ञ विषयों का सम्पर्क होने पर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं, वे 'अरहन्त' कहलाते हैं। . (३) अरूहन्त या अरोहन्त - कर्म रूपी बीज के क्षीण हो जाने से जिनकी फिर . उत्पत्ति अर्थात् जन्म नहीं होता, उसको 'अरूहन्त' कहते हैं।
(४) अरहोऽन्त - सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने के कारण जिनसे कोई भेद छिपा हुआ नहीं है। जिनके ज्ञान के लिए पर्वत, गुफा आदि कोई भी बाधक रुकावट करने वाले नह हैं, उन्हें 'अरहोऽन्त' कहते हैं। (५) अरथान्त - जिनके किसी भी प्रकार का परिग्रह रूप रथ नहीं है। उन्हे 'अरथान्त' कहते हैं।
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