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आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा - आवश्यक क्रम
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८. आवश्यक क्रम (१) सामायिक - जो अन्तर्दृष्टिवाले साधक है उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य समभाव अर्थात् सामायिक करना है।
(२) चतुर्विंशतिस्तव - अन्तर्दृष्टि वाले साधक जब किन्हीं महापुरुषों को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुंचे हुए जानते हैं, तब वे भक्ति भाव से गद्गद् होकर उनके वास्तविक गुणों की स्तुति करने लगते हैं।
. (३) वन्दना - अन्तर्दृष्टि वाले साधक अतीव नम्र एवं गुणानुरागी होते हैं अतएव वे समभाव स्थित साधु पुरुषों को यथा समय वन्दन करते रहते हैं।
(४) प्रतिक्रमण - अन्तर्दृष्टि वाले साधक इतने अप्रमत्त जागरूक तथा सावधान रहते हैं कि यदि कभी पूर्व वासनावश अथवा कुसंस्कारवश आत्मा समभाव से गिर जाय तो यथाविधि प्रतिक्रमण, आलोचना, पश्चात्ताप आदि करके पुनः अपनी पूर्व स्थिति को पा
लेते हैं।
. (५) कायोत्सर्ग - ध्यान से संयम के प्रति एकाग्रता की भावना परिपुष्ट होती है। इसलिये अन्तर्दृष्टि वाले साधक बार-बार कायोत्सर्ग (ध्यान) करते है।
(६) प्रत्याख्यान - ध्यान के द्वारा विशेष चित्तशुद्धि होने पर आत्म दृष्टि साधक आत्म स्वरूप में विशेष लीन हो जाते हैं। अत एव उनके लिये जड़ वस्तुओं के भोग का प्रत्याख्यान करना सहज स्वाभाविक हो जाता है।
कार्य कारण सम्बन्ध - जब तक आत्मा समभाव में स्थित न हो, तब तक भावपूर्वक चतुर्विंशतिस्तव किया ही नहीं जा सकता। जो स्वयं समभाव को प्राप्त है वही रागद्वेष रहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुषों के गुणों को जान सकता हैं और उनकी प्रशंसा कर सकता है अतएव सामायिक के बाद चतुर्विंशतिस्तव है। .. जो मनुष्य अपने इष्ट देव वीतराग देव की स्तुति करता है। वही उनकी वाणी के उपदेशक, गुरुदेवों को भक्ति पूर्वक वंदन कर सकता है। अत एव वंदन आवश्यक का स्थान चतुर्विंशतिस्तव के बाद रखा है। ___ जो वीतराग देव और गुरु के प्रति समर्पित है वही अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना कर सकता है। अतः वन्दना के बाद प्रतिक्रमण आवश्यक रखा गया है।
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