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आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा - भाव समायिक के प्रकार और परिभाषा २८१
काउसग्गे जह सुट्ठियस्स, भजति अंगमंगाई। इय भिदंति सुविहिया, अट्ठविहं कम्म संघायं ।।१५५१॥
अर्थ - जिस प्रकार कायोत्सर्ग में नि:स्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने लगता है, दुःखने लगता है, उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा आठों कर्म समूह को पीड़ित करते है एवं उन्हें नष्ट कर डालते हैं।
अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवुत्ति कय-बुद्धि।
दुक्ख परिकिलेसकर, छिंद ममत्तं सरीराओ॥१५५२॥ - अर्थ - कायोत्सर्ग में शरीर से सब दु:खों की जड़ ममता का सम्बन्ध तोड़ देने के लिए साधक को यह सुदृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए कि शरीर और है और आत्मा और है।
आगम साहित्य में कायोत्सर्ग के दो भेद किये है - द्रव्य और भाव। दव्वतो कायचेट्ठा निरोहो, भावतो झाणं। द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है - शरीर की चेष्टा का निरोध करना।
भाव कायोत्सर्ग का अर्थ है - दुानों का त्याग कर धर्म तथा शुक्ल ध्यान में रमण करना। कायोत्सर्ग में ध्यान की ही महिमा है। द्रव्य के साथ भाव युक्त कायोत्सर्ग सब दुःखों का क्षय करने वाला है।
६. प्रत्याख्यान आवश्यक - प्रत्याख्यान का अर्थ है - त्याग करना। प्रवचन सारोद्धार वृत्ति में कहा है - 'अविरति स्वरूप प्रभृति प्रतिकूलतया आ मर्यादया
आकार-करण स्वरूपया आख्यान - कथनं प्रत्याख्यानम्।' . (प्रत्याख्यान शब्द तीन शब्दों से मिल कर बना है --प्रति+आ+आख्यान)
अविरति एवं असंयम के 'प्रति' अर्थात् प्रतिकूल रूप में 'आ' मर्यादा स्वरूप आकार के साथ 'आख्यान' अर्थात् प्रतिज्ञा करना, प्रत्याख्यान है अथवा - आत्म स्वरूप के प्रति 'आ' अर्थात् अभिव्याप्त रूप से जिससे अनाशंसा रूप गुण उत्पन्न हो, इस प्रकार का आख्यानकथन करना प्रत्याख्यान है। अथवा - भविष्यत्काल के प्रति आ-मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना, प्रत्याख्यान है। - प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद हैं - मूल गुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान। दोनों के सर्व और देश के भेद से दो-दो भेद हैं। पाँच महाव्रत सर्व मूलगुण प्रत्याख्यान है। पाँच अणुव्रत देश मूल गुण प्रत्याख्यान है। अनागतादि १० भेद सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान है जो
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