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________________ २७० आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट तृतीय .0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ही मुख्य कर उपयोग रहित अपने ही आवश्यक को आगम से एक द्रव्यावश्यक मानता है। जैसे - स्वधन (अपना धन)। शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत ये तीन नय वाले, जो आवश्यक का जानकार है और उपयोग रहित हो उसे आवश्यक नहीं मानते हैं क्योंकि जानकार है वह उपयोग रहित नहीं होता और जो उपयोग रहित है वह जानकार नहीं होता, इसलिये इसे ये आगम से द्रव्यावश्यक ही नहीं मानते हैं। .. २. नो आगमतो द्रव्यावश्यक - (१) ज्ञ शरीर नो आगम से द्रव्यावश्यक - जैसे कोई पुरुष आवश्यक इस सूत्र के अर्थ का जानकार था, वह कालधर्म को प्राप्त हो गया, उसके मृतक शरीर को भूमि पर या संथारे पर लेटा हुआ देख कर किसी ने कहा कि - इस शरीर द्वारा जिनोपदिष्ट भाव से आवश्यक इस सूत्र का अर्थ सामान्य या विशेष या समस्त प्रकार के भेदानुभेदों द्वारा प्ररूपता था तथा क्रिया विधि द्वारा सम्यक् प्रकार दिखलाता था, जैसे - किसी घड़े में पहले शहद या घी रखा था अब खाली हो जाने पर भी उस घड़े को देख कर कोई कहे कि यह शहद या घी का घड़ा था इत्यादि। (२) भव्य शरीर नो आगम से द्रव्यावश्यक - जैसे किसी श्रावक के घर पर लड़के का जन्म हुआ। उसे देखकर कोई कहे कि यह लड़का इस शरीर से ज़िनोपदिष्ट भाव वाले भावश्यक इस सूत्र का जानकार भविष्यतकाल में होगा। जैसे - नये घड़े को देखकर कोई कि यह शहद या घी का घड़ा होगा इत्यादि। (३) ज्ञ शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त नो आगम से द्रव्यावश्यक - इसके तीन भेद हैं - 9. लौकिक ज्ञ शरीर - जैसे कोई राजेश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति आदि का प्रभात पहले यावत् जाज्वल्यमान सूर्य उदय के समय मुंह धोना, दंत प्रक्षालन, तेल लगाना, स्नान मञ्जन करना, सर्षप दूब आदि मांगलिक उपचारों का करना, आरिसे में मुंह देखना, धूप, पुष्पमाला, सुगन्ध, ताम्बूल, वस्त्र, आभूषणादि सब वस्तुओं द्वारा शरीर का श्रृंगार करके नित्य प्रति राजसभा, पर्वत या बाग बगीचे में जाना। ये लौकिक ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त नो आगम से द्रव्यावश्यक हैं। २. कुप्रावचनिक ज्ञ शरीर - "चरग चीरिग चम्म खंडिअ भिक्खोंड पंडुरग' गोअम गोव्वतिअ गिहिधम्म धम्मचिंतग अविरुद्ध विरुद्ध वुड सावगप्पभिइओ पासडत्था कल्ल पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते इंदस्स वा खंदस्स वा रुद्दस वा सिवस्स वा वेसमेणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जक्खस्स वा भूअस्स वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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