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________________ आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा - आवश्यक का आध्यात्मिक फल २६७ भावना में पहुंच कर निन्दा करना स्खलित निन्दना है। दोष को दोष मान कर उससे पीछे हटना प्रतिक्रमण का अर्थाधिकार है। ५. वणतिगिच्छ (व्रणचिकित्सा) - कायोत्सर्ग का ही दूसरा नाम व्रण-चिकित्सा है। स्वीकृत चारित्र साधना में जब कभी अतिचार रूप दोष लग जाता है तो वह एक प्रकार का भाव व्रण (घाव) हो जाता है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, जो उस भावव्रण पर चिकित्सा का काम देता है। ६. गुणधारणा (गुणधारणा) - प्रत्याख्यान का दूसरा पर्यायवाची गुणधारणा है। कायोत्सर्ग के द्वारा भावव्रण के ठीक हो जाने पर प्रत्याख्यान के द्वारा फिर उस शुद्ध स्थिति को परिपुष्ट किया जाता है। किसी भी त्याग रूप गुण को निरतिचार रूप से धारण करना गुणधारणा है। ४. आवश्यक का आध्यात्मिक फल १. सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ? अर्थ - हे भगवन् ! सामायिक करने से इस आत्मा को क्या लाभ होता है? सामाइएणं सावज जोग विरई जणयइ। सामायिक करने से सावध योग-पापकर्म से निवृत्ति होती है। २. चउव्वीसत्थएणं भते! जीवे किं जणयह? अर्थ - हे भगवन् ! चतुर्विंशतिस्तव से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है? चउव्वीसत्थएणं दसण विसोहिं जणयइ। अर्थ - चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन विशुद्धि होती है। 3. वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ? अर्थ - हे भगवन्! वन्दन करने से आत्मा को क्या लाभ होता है? वंदणएणं नीयागोयं कम्म खवेइ, उच्चा गोयं कम्मं निबंधइ, सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निवेत्तइ, दाहिण भावं च णं जणयइ।। - अर्थ - वन्दन करने से यह आत्मा नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्च गोत्र कर्म का बंध करता है, सुभग, सुस्वर आदि सौभाग्य की प्राप्ति होती है, सब उसकी आज्ञा शिरसा स्वीकार करते हैं और वह दाक्षिण्य भाव कुशलता (चतुराई) एवं सर्वप्रियता को प्राप्त होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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