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श्रावक आवश्यक सूत्र - प्रतिक्रमण करने की विधि
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प्रतिक्रमण करने की विधि
निरवद्य स्थान में विधि पूर्वक सामायिक करें। यदि कारणवशात् (रेल आदि में) सामायिक न कर सकें तो संवर धारण करें। फिर खड़े होकर शासनपति भगवान् महावीर स्वामी को या गुरु महाराज विराजित हों तो उन्हें गुरु वन्दन सूत्र (तिक्खुत्तो के पाठ) से तीन बार वन्दना कर के क्षेत्र विशुद्धि के लिये 'चउवीसत्थव' की आज्ञा लें। चउवीसत्थव में नमस्कार सूत्र, आलोचना सूत्र (इच्छाकारेणं का पाठ) और उत्तरीकरण सूत्र (तस्सउत्तरी का पाठ) कहकर काठस्सग्ग करें। काउस्सग्ग में चार + चतुर्विंशतिस्तव सूत्र (लोगस्स) का ध्यान करें। ‘णमो अरहंताणं' कह कर काउस्सग्ग पारें। फिर काउस्सग्ग शुद्धि का पाठ बोलकर एक चतुर्विंशतिस्तव सूत्र प्रकट बोले। फिर नीचे बैठकर बायां घुटना खड़ा
* अनेक प्रकार के चउवीसत्थ होते हैं। उनमें अलग-अलग प्रकार से कायोत्सर्गों की विधि बताई * गई है। 'जिनकल्प' गाथा १८-२२ में कायोत्सर्ग की विधि इस प्रकार बताई गई है -
गमणागमणं विहारे सूयम्मि सावज - सुविणयाईसु। नावा नइसंतारे, पायच्छित्त विउस्सग्गे॥१८॥ भत्तेपाणे सयणासयणे य, अरहंत समण सेजासु। उच्चारे पासवणे, पणवीसं होंति उसासा॥१९॥ हत्थसया बहिसओ, गमणागमण इएसु पणवीसं। पाणी वहाई-सुविणे, सयमट्ठसयं चउत्थम्मि॥२०॥ देसिय-राइय-पक्खिय, चाउम्मास चरिमेसु परिमाणं। सयमद्धं तिण्णीसया, पंचसयऽट्टत्तरं सहस्सं॥२१॥ उद्देस समुहेसे, सत्तावीसं अणुण्णवणियाए। . अद्वैव य उसासा, पट्ठवणं पडिक्कमणाई॥२२॥
- इन गाथाओं में १-४ आदि लोगस्स के कायोत्सर्ग का वर्णन है। स्वप्नान्तक, प्राणवध आदि का चार लोगस्स का कायोत्सर्ग बताया है। इस आधार से मानसिक प्रमादजन्य अतिचारों की शुद्धि के लिए पूज्य श्री धर्मदासजी म. सा. की परम्परा में चार लोगस्स का चउवीसत्थव करने की परम्परा रही हुई है, जो उचित ही प्रतीत होती है। अत: प्रतिक्रमण के चउवीसत्थव में चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करना प्रामाणिक लगता है।
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