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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय
शंका- श्रावक, श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे या करते हैं, इसका कोई प्रमाण
है क्या ?
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बारह वर्षों के महादुष्काल से धर्मस्खलित जैनों के पुनरुद्धारक श्रावक સમાથાન श्रेष्ठ श्री लोंकाशाह गुजरात देश के अहमदाबाद शहर में हुए। उस देश में अर्थात् गुजरात झालावाड़, काठियावाड़, कच्छ आदि देशों में छह कोटि एवं आठ कोटि वाले सभी श्रावक श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे एवं करते हैं। सनातन जैन साधुमार्गी समाज के पुनरुद्धारक परम पूज्य श्री लवजी ऋषिजी महाराज के तृतीय पाट पर विराजित हुए परम पूज्यं श्री कहनाजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमण सूत्र बोलते हैं । बाईस संप्रदाय के मूलाचार्य परम पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं।
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उपर्युक्त शंका-समाधान से सिद्ध होता है कि श्रावक को श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण करना चाहिए। श्रमण सूत्र के पाठों के बिना श्रावक की क्रिया पूरी तरह शुद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि श्रावकों को अवश्य जानने योग्य विषय और आचरण करने योग्य विषय श्रमण सूत्र में है। प्राचीन काल के श्रावक श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे, वर्तमान में भी कुछ श्रावक श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं और जो श्रमण सूत्र सहित प्रतिक्रमण नहीं करते हैं, उन्हें भी करना चाहिए ।
ढ़ाई द्वीप का पाठ
ढ़ाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र में तथा बाहर श्रावक-श्राविका दान देवे, शील पाले, तपस्या करे, शुभ भावना भावे, संवर करे, सामायिक करे, पौषध करे, प्रतिक्रमण करे, तीन मनोरथ चिन्तवे, चौदह नियम चित्तारे, जीवादि नव पदार्थ जाने, श्रावक के इक्कीस गुण कर के युक्त, एक व्रतधारी जाव बारह व्रतधारी, भगवन्त की आज्ञा में विचरे ऐसे बड़ों को हाथ जोड़ पांव पड़ के क्षमा माँगता हूं। आप क्षमा करें आप क्षमा करने योग्य हैं और शेष सभी से क्षमा मांगता हूँ ।
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