________________
गुरु वंदन सूत्र
लिए तथा तीन बार वन्दना करने से ही विधि की पूर्णता होने से एवं पूर्ण विनय को बताने के लिए तीन बार वन्दना की जाती है। 'लौकिक में भी अनेक कार्यों को तीन बार करने पर उन कार्यों की पूर्णता समझा जाती है।'
44
" प्रथम वन्दना ज्ञान गुण को, द्वितीय वन्दना दर्शन गुण को एवं तृतीय वन्दना चारित्र गुण के लिए की जाती है" - ऐसा कहना उचित नहीं है । वास्तव में वन्दना तो चारित्रिक गुणों को अर्थात् चारित्र को ही होती है । चारित्र रहित ज्ञानादि को वन्दना करने का कहीं पर भी उल्लेख प्राप्त नहीं हैं । चारित्र रहित ज्ञान व दर्शन होने पर भी उसे 'बाल' (अव्रती ) माना गया है । अतः वंदना तो 'चारित्र' को ही समझी जाती है । चारित्र सहित ज्ञान व दर्शन ही वंदनीय है । 'चारित्र' होने पर तो ज्ञान व दर्शन अवश्य होते ही हैं । चारित्र गुणों के वंदन में ज्ञान-दर्शन गुणों की वंदना शामिल हो जाती है । चारित्र (संयम) ग्रहण करने के पूर्व तीर्थंकरों को भी वंदना नहीं की जाती है।
उपर्युक्त प्रकार से पूज्य बहुश्रुत गुरु भगवंत फरमाया करते थे ।
वंदामि - णमंसामि - वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। वंदना और नमस्कार में अंतर है। वंदना अर्थात् मुख से गुणगान करना, स्तुति करना और नमस्कार अर्थात् उपास्य महापुरुष को भगवत्स्वरूप समझ कर अपने मस्तक को झुकाना यानी काया से नम्रीभूत होना, प्रणमन करना ।
७
सक्कारेमि-सम्माणेमि - सत्कार करता हूँ । सम्मान करता हूँ । मन से आदर करना, वस्त्र, अन्न आदि देना सत्कार है। जबकि गुरुजनों आदि को बड़ा मानना, उन्हें ऊंचा आसन देना, हृदय में उनके प्रति भक्तिभाव और बहुमान होना सम्मान है।
कल्लाणं - १.. कल्ये प्रातः काले अण्यते भण्यते इति कल्याणम् । ( अमरकोष १/४/२५) 'कल्य' का अर्थ प्रातः काल है और 'अंण' का अर्थ है बोलना । अतः अर्थ हुआ प्रातः स्मरणीय । .
2. आचार्य हेमचन्द्र अर्थ करते हैं 'कल्य नीरुनत्वमणतीती' अर्थात् कल्प का अर्थ है - निरोगता - स्वस्थता । जो मनुष्य को नीरोगता प्रदान करता है वह कल्याण है। 3. 'कल्यो ऽत्यन्तनीरुक्त्या मोक्षस्तमाणयति प्रापयतीति कल्याणः मुक्ति हैतुः' यहाँ कल्याण का अर्थ है - मोक्ष (कर्म रोग से मुक्त स्वस्थ), जो कल्य- मोक्ष प्राप्त करावे, वह कल्याण है ।
मंगलं १. 'मंगति - हितार्थ सर्पति इति मंगलं' जो सब प्राणियों के हित के लिए प्रयत्नशील होता है, वह मंगल है |
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org