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आवश्यक सूत्र
समाधान - आवर्तन गुरु आदि के प्रति समर्पणता के सूचक होते हैं। आगमों में 'सिरसावत' (शिरसावर्त) शब्द अनेक स्थलों में आया है। इसका अर्थ - 'मैं अपना मस्तिष्क (उत्तमाङ्ग) अर्पित करता (अंवारता) हूँ। इसलिए आवर्तन से विनय प्रतिपत्ति समझी जाती है। मूर्तिपूजक समाज - मूर्ति एवं भगवान् के चौतरफ घूमने को आवर्तन मानता है, एवं 'तिक्खुत्तो' के पाठ में आये हुए "आयाहिणं-पयाहिण" का अर्थ - 'उन वन्दनीय गुरु आदि के दक्षिण दिशा में रहते हुए चौतरफ घूमना' करता है। किन्तु स्थानकवासी परम्परा इस अर्थ को उचित नहीं मानती है। क्योंकि 'उववाइय' आदि सूत्रों में समवसरण (व्याख्यान सभा) में विराजित भगवान् के दर्शन करने कूणिक राजा आदि पहुँचते हैं, वे स्त्री पुरुष सभी आदक्षिण-प्रदक्षिण करते हैं। व्याख्यान के समय में भगवान् के पास पहुँचकर चौतरफ घूमने से व्याख्यान में विक्षेप होता है। आगमों में सर्वत्र आने वालों (वन्दना करने वालों) का ही आदक्षिण-प्रदक्षिण बताया है। इसलिए स्थानकवासी परम्परा 'आदक्षिण-प्रदक्षिण' का अर्थ - 'शिरसावत' करती है। जिससे व्याख्यान में विक्षेप भी नहीं पड़ता एवं आगम पाठ की सुसंगति भी हो जाती है। 'आदक्षिण' का अर्थ - 'दाहिनी तरफ से' होता है। स्वयं के शिरसावर्त होने पर वन्दनीय (गुरु आदि) के दाहिने रहने का कोई औचित्य नहीं होने से - "स्वयं के दाहिने कान से ऊपर की तरफ मस्तक के चौतरफ अञ्जलि को घुमाना 'आदक्षिणप्रदक्षिण' समझा जाता है।" उपर्युक्त प्रकार से पूज्य बहुश्रुत भगवन्त फरमाते हैं।
मन, वचन और काया से वंदनीय की पर्युपासना करने के लिए तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की जाती है। ____ शंका - तिक्खुत्तो का पाठ तीन बार बोलने का आगम का आधार क्या है? तथा तीन बार बोलने का क्या कारण है?
समाधान - उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में - आनन्द श्रावक के द्वारा गौतमस्वामी को वन्दना करने के लिए - 'तिक्खुत्तो मुद्धाणं पाएसु पडइ' पाठ आया है। अर्थात् - तीन बार मस्तक झुका कर पाँवों में नमन किया। अन्यत्र भी आगमों में, 'तिक्खुत्तो वंदड़ णमंसह पाठ आता है। इत्यादि आगम पाठों से एवं आगमों की प्राचीन व्याख्याओं में भी ‘गुरुवन्दन सूत्र' प्रतिज्ञा सूत्र आदि पाठों को तीन बार बोलने की विधियाँ प्राप्त होती है।
वन्दनीय पांच पदों में रहे हुए चारित्र गुणों (सिद्ध भगवान् में 'वीतरागता' गुण) के
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