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________________ श्रावक आवश्यक सूत्र - बड़ी संलेखना का पाठ २४९ मैं सदैव यत्न करता रहा कि इसे कहीं शीत न लग जाय, गर्मी न लग जाय, इसे भूख प्यास न लगे, इस सर्प न काटे, चोरों का भय न हो, डांस मच्छर न काटें, वात, पित्त, कफ आदि के रोग न हो, सन्निपात आदि विविध भयंकर रोगों का आतंक परीषह उपसर्ग आदि पीड़ाएं नहीं आयें, ऐसे यत्नपूर्वक पाले-पोषे हुए इस शरीर से अपना ममत्व हटा कर मैं इसका त्याग करता हूँ और अंतिम श्वासोच्छवास तक इस शरीर से अपनेपन का त्याग करता हूँ और काल की इच्छा नहीं करता हुआ विचरता हूँ। ___ ऐसी मेरी श्रद्धा और प्ररूपणा है जब अंतिम समय आवे तब स्पर्शना द्वारा शुद्ध होऊँ। अंतिम मरण समय संबंधी सलेखना के विषय में कोई दोष लगा हो - मैंने राजा चक्रवर्ती आदि के इस लोक संबंधी सुख की आकांक्षा की हो, देव, इन्द्र आदि के परलोक संबंधी सुख की आकांक्षा की हो, प्रशंसा फैलने पर बहुत काल तक जीवित रहने की इच्छा की हो, दुःख से व्याकुल हो कर शीघ्र मरने की इच्छा की हो तथा कामभोग की अभिलाषा की हो, तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ। मेरा वह सब पाप निष्फल हो। ___विवेचन - आयुष्य पूरा होने पर आत्मा का शरीर से अलग होना अथवा शरीर से प्राणों का निकलना "मरण" कहलाता है। मरण दो प्रकार का बतलाया है - १. सकाम (पंडित) मरण और २. अकाम (बाल) मरण। ज्ञानी जीवों का मरण सकाम मरण होता है और अज्ञानी जीवों का मरण अकाम मरण होता है। संलेखना एक प्रकार का तप है। संलेखना शरीर और कषाय को कृश करने वाला तप है। तप से निम्न लाभ है - इहलोक दृष्टि से रोग मुक्ति होती है। शारीरिक मानसिक विकार नष्ट होते हैं । शरीर स्वस्थ बनता है । आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मदृढ़ता का विकास होता है। कर्म मल का विनाश होने से आत्मा निर्मल सशक्त बनती है। लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। कर्म रूपी कचरे को जलाने के लिए तप अग्नि का काम करता है । नित्य रात्रि को संलेखना करनी चाहिये। इसकी विधि भी मारणांतिक संलेखना के समान ही है। जहाँ "विहरामि" शब्द आया है उसके बाद "यदि पारूँ तो अनशन पालना कल्पता है, मर जाऊं तो जीवन पर्यन्त अनशन है" इतना कह देना चाहिये । निम्न दोहे से भी इसे ग्रहण किया जा सकता है :- . आहार शरीर उपधि, पचक्खू पाप अट्ठार । जब तक मैं बोलूं नहीं, एक बार नवकार || Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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