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________________ २४८ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय .00000000000000000000000000000000.ka.mmmentenmenam.0000000000 समणुजाणामि - दूसरों को करते हुए भला भी नहीं समझूगा, जं प्रिय - और भी जो, इमं - जानता हूँ, सरीरं - यह शरीर, इ8 - इष्ट, कंतं - कान्ति युक्त, पियं - प्रिय, मणुण्णं - मनोज्ञ, मणामं - अत्यन्त मनोहर, धिज्जं - धैर्यशाली, विसासियं - विश्वासनीय, संमयं - मानने योग्य (माननीय), अणुमयं - विशेष सम्मान को प्राप्त, अनुमोदनीय, बहुमयंबहुत माननीय, भण्डकरण्डगसमाणं - आभूषणों के करण्डिये (करण्ड डिब्बा) के समान, रंयणकरण्डगभूयं- रत्नों के करण्डि ये के समान, मा णं - न हो, सीयं - शीत (सर्दी), उण्हं - उष्णता, खुहा - क्षुधा, पिवासा - प्यास, वाला - सर्प का डसना (काटना), चोरा - चोर, दंसमसगा - डांस-मच्छर, वाइय - वात, पित्तिय - पित्त, कप्फियः- कफ, सण्णिवाइयं- सन्निपात, विविहा - अनेक प्रकार के, रोगायंका - रोग का आतंक, परीसहा - परीषह, उवसग्गा - उपसर्ग, फासा फुसंतु - स्पर्श करे, संबन्ध करे, एवं पिय णं - ऐसे इस शरीर को भी, चरमेहिं - अन्तिम, उस्सासणिस्सासेहिं - श्वासोच्छ्वास में, कालं अणवकंखमाणे- काल की आकांक्षा नहीं करता हुआ। भावार्थ - मृत्यु का समय निकट आने पर संलेखना तप करने वाला पहले संथारे का स्थान निश्चित्त करे। वह स्थान निर्दोष - जीव जंतु और कोलाहल से रहित तथा शांत हो फिर उच्चार प्रस्रवण की भूमि (बड़ी नीत लघुनीत परठने का स्थान) देख कर निर्धारित करे। इसके बाद संथारे की भूमि का प्रमार्जन करे और उस पर दर्भ आदि का संथारा बिछाकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठे। ईर्यापथिकी - गमनागमन का प्रतिक्रमण करे फिर दोनों हाथ जोड़ कर नमोत्थुणं के पाठ से सिद्ध भगवान् एवं अरहंत भगवान् की स्तुति करे। इसके बाद गुरुदेव को वंदना करके चतुर्विध तीर्थ से क्षमायाचना करते हुए संसार के सभी प्राणियों से क्षमायाचना करे। पहले धारण किये हुए व्रतों में जो अतिचार लगे हों उनकी आलोचना और निंदा करे। इसके बाद सर्व हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य रूप अठारह पापों का एवं चारों आहार का त्याग करे तथा सम्पूर्ण पापजनक योग का तीन करण तीन योग से (मन, वचन, काया से पाप कार्य स्वयं करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं और करते हुए को भला भी नहीं समझूगा) त्याग करे। तत्पश्चात् उत्साह पूर्वक शरीर त्याग की प्रतिज्ञा करता हुआ कहे कि - मेरा यह शरीर जो मुझे, इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, धैर्य देने वाला विश्वसनीय, माननीय, अनुमोदनीय, बहुत माना हुआ, आभूषणों के करंडिये के समान रत्न के करंडिये के समान सदैव लगता रहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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