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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्विताय ...... *************0000000000000000000000000000000000000 वचनदुष्प्रणिधान - वचन के अशुभ योग प्रवर्तायें हो, कायदुप्पणिहाणे - कायदुष्प्रणिधान - काया के अशुभ योग प्रवर्तायें हो, सानाइयस्स सइ अकरणया - सामायिक की स्मृति न की हो, सामाइयस्सअणवट्ठियस्स करणया - समय पूर्ण हुए बिना सामायिक पारी हो।
भावार्थ - मैंने सावध योग का त्याग कर जितने काल का नियम किया है उसके अनुसार सामायिक व्रत का पालन करता हूँ। मैं नियम पर्यंत मन, वचन, काया से पापजनक क्रिया न करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा। "सामायिक का यह स्वरूप है और यह करने योग्य है?" ऐसी मेरी श्रद्धा है और अन्य के समक्ष भी ऐसा ही कहता हूँ। मैंने सामायिक के समय मन में बुरे विचार किये हो, कठोर या पापजनक वचन बोले हो, अयतनापूर्वक शरीर से चलना फिरना, हाथ पाँव को फैलाना, संकोचना आदि क्रियाएं की हो, सामायिक करने का काल याद न रखा हो, समय पूर्ण हुए बिना सामायिक पारी हो या अनवस्थित रूप से जैसे तैसे सामायिक की हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे सम्पूर्ण पाप निष्फल हो।
विवेचन - समभाव की प्राप्ति को सामायिक कहते हैं । सामायिक में सावध योगों का त्याग किया जाता है। अठारह पाप स्थान को सावध योग कहते हैं। साधुजी की सामायिक जीवन पर्यन्त और श्रावक की सामायिक एक दो मुहूर्त या नियम पर्यन्त होती है । साधुजी की सामायिक तीन करण तीन योग से होती है तथा श्रावक की सामायिक प्रायः दो करण तीन . योग से होती है।
शंका - सामायिक व्रत को इतने पीछे नववें व्रत में क्यों लिया गया ?
समाधान - आठ व्रत यावज्जीवन ग्रहण किये जाते हैं और सामायिक १-२ मुहूर्त पर्यन्त। अथवा सामायिक के शुद्धाराधन के लिए अठारह पापों का ज्ञान आवश्यक है। अणुव्रतों और गुणव्रतों में इनका वर्णन आ जाता है ।
___90. देशावकाशिक व्रत दसवां व्रत - देशावकाशिक - प्रतिदिन प्रभात से प्रारम्भ कर के पूर्वादि छहों दिशाओं में जितनी भूमिका की मर्यादा रखी हो, उसके उपरांत आगे जाने का तथा दूसरों को भेजने का पच्चक्खाण, जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा तथा जितनी भूमिका की हद
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