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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय
कठिन शब्दार्थ - भंते ! - हे भगवन् !, सामाइयं - समभाव रूप सामायिक को, करेमि - मैं ग्रहण करता हूँ, सावजं - सावद्य (पाप सहित), जोगं - योगों का व्यापार (कार्य) का, पच्चक्खामि - प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ, जाव - जब तक, नियमं - इस नियम का, पज्जुवासामि - मैं सेवन करता रहूँ तब तक, दुविहं - दो करण से, तिविहेणं - तीन योग से अर्थात्, मणसा - मन से, वयसा - वचन से, कायसा - काया (शरीर) से, न करेमि - सावद्य योग का सेवन नहीं करूँगा, न कारवेमि - दूसरे से नहीं कराऊँगा, तस्स - उससे (पहले के पाप से), पडिक्कमामि - मैं निवृत्त होता हूँ, निंदामि - उस पाप की आत्म साक्षी से निंदा करता हूँ, गरिहामि - गुरु साक्षी से गर्दा (निन्दा) करता हूँ, अप्पाणंअपनी आत्मा को उस पाप व्यापार से, वोसिरामि - हटाता हूँ, पृथक् करता हूँ। __ भावार्थ - मैं सामायिक (समभाव की प्राप्ति) व्रत ग्रहण करता हूँ (राग द्वेष का अभाव और ज्ञान दर्शन चारित्र का लाभ ही सामायिक है) मैं पापजनक व्यापारों का त्याग करता हूँ । जब तक मैं इस नियम का पालन करता रहूँ, तब तक मन वचन और काया-इन तीनों योगों द्वारा पाप कार्य स्वयं नहीं करूँगा और न दूसरे से कराऊँगा। हे स्वामिन् ! पूर्वकृत पाप से मैं निवृत्त होता हूँ। हृदय से मैं उसे बुरा समझता हूँ और गुरु के सामने उसकी निन्दा करता हूँ । इस प्रकार मैं अपनी आत्मा को पाप-क्रिया से निवृत्त करता हूँ।
विवेचन - जिसके द्वारा समभाव की प्राप्ति हो, उसे सामायिक कहते हैं। सामायिक में सावध योगों का त्याग किया जाता है। अठारह पाप की प्रवृत्ति को सावध योग कहते हैं। ४८ मिनिट का एक मुहूर्त होता है । करना, करवाना और अनुमोदन करना, ये तीन करण हैं। करण के साधन को योग कहते हैं । मन, वचन और काया ये तीन योग हैं।
इच्छामि ठामि का पाठ यह पाठ संक्षिप्त प्रतिक्रमण है। इसमें सम्पूर्ण प्रतिक्रमण का सार आ जाता है। इस पाठ से - दिवस संबंधी दोषों की आलोचना की जाती है और आचार-विचार संबंधी भूलों का प्रतिक्रमण किया जाता है।
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