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श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच पदों की वंदना
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१६. अप्रकीर्णप्रसृतत्व - प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार के साथ व्याख्यान करना अथवा असम्बन्ध अर्थ का कथन न करना एवं सम्बद्ध अर्थ का भी अत्यधिक विस्तार न करना।
१७. अन्योन्यप्रगृहीतत्व - पद और वाक्यों का सापेक्ष होना। १८. अभिजातत्व - भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना।
१९.अति स्निग्ध मधुरत्व - भूखे व्यक्ति को जैसे घी गुड़ आदि परम सुखकारी होते हैं। उसी प्रकार स्नेह एवं माधुर्य परिपूर्ण वाणी का श्रोता के लिए सुखकारी होना।
२०. अपरमर्मवेधित्व - दूसरे के मर्म (रहस्य) का प्रकाश न होना। २१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुतचारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध
होना।
. २२. उदारत्व - प्रतिपादय अर्थ का महान् होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना।
२३. परनिंदात्मोत्कर्ष विप्रयुक्तत्व - दूसरे की निंदा एवं आत्म प्रशंसा से रहित होना। .. २४. उपगतश्लाघत्व - वचन में उपर्युक्त (परनिंदात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व) गुण होने से वक्ता की श्लाघा-प्रशंसा होना। - २५. अनपनीतत्व - कारक, काल, वचन, लिंग आदि के विपर्यास रूप दोषों का न होना।
२६. उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्व - श्रोताओं में वक्ता विषयक निरन्तर कुतूहल बने रहना।
.२७. अद्भुतत्व - वचनों के अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोता के दिल में हर्ष रूप विस्मय का बने रहना।
२८. अनतिविलम्बितत्व - विलम्ब रहित होना।
२९. विभ्रमविक्षेपकिलिकिंचतादि विप्रयुक्तत्व - वक्ता में मन में भ्रान्ति होना विभ्रम है। प्रतिपादय विषय में मन न लगना विक्षेप है। शेष भय लोभ आदि भावों के सम्मिक्षण को किलिकिंचित् कहते हैं। इनसे तथा मन के दोषों से रहित होना।
३०. विचित्रत्व - वर्णनीय वस्तुएं विविध प्रकार की होने के कारण वाणी में विचित्रता होना।
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