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________________ श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच पदों की वंदना १८९ .00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 १६. अप्रकीर्णप्रसृतत्व - प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार के साथ व्याख्यान करना अथवा असम्बन्ध अर्थ का कथन न करना एवं सम्बद्ध अर्थ का भी अत्यधिक विस्तार न करना। १७. अन्योन्यप्रगृहीतत्व - पद और वाक्यों का सापेक्ष होना। १८. अभिजातत्व - भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना। १९.अति स्निग्ध मधुरत्व - भूखे व्यक्ति को जैसे घी गुड़ आदि परम सुखकारी होते हैं। उसी प्रकार स्नेह एवं माधुर्य परिपूर्ण वाणी का श्रोता के लिए सुखकारी होना। २०. अपरमर्मवेधित्व - दूसरे के मर्म (रहस्य) का प्रकाश न होना। २१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुतचारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना। . २२. उदारत्व - प्रतिपादय अर्थ का महान् होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना। २३. परनिंदात्मोत्कर्ष विप्रयुक्तत्व - दूसरे की निंदा एवं आत्म प्रशंसा से रहित होना। .. २४. उपगतश्लाघत्व - वचन में उपर्युक्त (परनिंदात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व) गुण होने से वक्ता की श्लाघा-प्रशंसा होना। - २५. अनपनीतत्व - कारक, काल, वचन, लिंग आदि के विपर्यास रूप दोषों का न होना। २६. उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्व - श्रोताओं में वक्ता विषयक निरन्तर कुतूहल बने रहना। .२७. अद्भुतत्व - वचनों के अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोता के दिल में हर्ष रूप विस्मय का बने रहना। २८. अनतिविलम्बितत्व - विलम्ब रहित होना। २९. विभ्रमविक्षेपकिलिकिंचतादि विप्रयुक्तत्व - वक्ता में मन में भ्रान्ति होना विभ्रम है। प्रतिपादय विषय में मन न लगना विक्षेप है। शेष भय लोभ आदि भावों के सम्मिक्षण को किलिकिंचित् कहते हैं। इनसे तथा मन के दोषों से रहित होना। ३०. विचित्रत्व - वर्णनीय वस्तुएं विविध प्रकार की होने के कारण वाणी में विचित्रता होना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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