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श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं का विस्तार १६३ .00000000000000000000000000000000000000000000aae00000000000Rs. पूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ साधु किसी भी प्राणी की अवज्ञा या हीलना नहीं करे, न निंदा करे
और न छेदन भेदन और वध करे। किसी भी प्राणी को किञ्चित् मात्र भी भय और दुःख नहीं दे। इस प्रकार ईर्या समिति से अन्तरात्मा भावित-पवित्र होती है। उसका चारित्र और परिणति निर्मल, विशुद्ध एवं अखण्डित होती है। वह अहिंसक होता है। ऐसा अहिंसक संयत उत्तम साधु होता है।
२. मन समिति भावना - अहिंसा महाव्रत की दूसरी भावना 'मन समिति' है। साधु अपने मन को पापकारी - कलुषित बनाकर दुष्ट विचार नहीं करे, न मन मलिन बना कर अधार्मिक, दारुण एवं नृशंसातापूर्ण विचार करे तथा वध बन्धन और पारितापोत्पादक विचारों में लीन भी नहीं बने। जिनका परिणाम भय, क्लेश और मृत्यु है, ऐसे हिंसायुक्त पापी विचारों को मन में किञ्चित् मात्र भी स्थान नहीं दे। ऐसा पापी ध्यान कदापि नहीं करे। इस प्रकार मन समिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित होती है। ऐसी विशुद्ध मन वाली आत्मा का चारित्र और भावना निर्मल तथा अखण्डित होता है। वह साधु अहिंसक, संयमी एवं मुक्ति साधक होता है। उसकी साधुता उत्तम होती है। ... ३. वचन समिति भावना - अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना 'वचन समिति' है। कुवचनों से किंचित् मात्र भी पापकारी-आरंभकारी वचन नहीं बोलना चाहिए। वचन समिति पूर्वक वाणी के व्यापार से अन्तरात्मा निर्मल होती है। उसका चारित्र एवं भाव निर्मल, विशुद्ध एवं परिपूर्ण होता है। वचन (भाषा) समिति का पालन अहिंसक संयमी तथा मोक्ष का उत्तम साधक होता है। उसकी साधुता प्रशंसनीय होती है।
४. आहारैषणा समिति भावना - अहिंसा महाव्रत की चौथी भावना ‘एषणा समिति' है। आहार की गवेषणा के लिए गृह समुदाय में गया हुआ साधु थोड़े-थोड़े आहार की गवेषणा करे। आहार के लिए गृह समुदाय में गया हुआ साधु, अज्ञात रहता हुआ अर्थात् अपना परिचय नहीं देता हुआ स्वाद में गृद्धता, लुब्धता एवं आसक्ति नहीं रखता हुआ गवेषणा करे। यदि आहार तुच्छ, स्वादहीन या अरुचिकर मिले तो उस आहार पर या उसके देने वाले पर द्वेष नहीं लाता हुआ, दीनता, विवशता या करुणा भाव न दिखाता हुआ, समभाव पूर्वक आहार की गवेषणा करे। यदि आहार नहीं मिले, कम मिले, अरुचिकर मिले तो मन में विषाद नहीं लावे और अपने मन, वचन और काया के योगों को अखिन्न-अखेदित रखता हुआ संयम में प्रयत्नशील रहे। अप्राप्त गुणों की प्राप्ति में उद्यम करने वाला एवं विनयादि
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