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________________ श्रमण आवश्यक सूत्र- दर्शन सम्यक्त्व का पाठ प्रधान अतिचार जो जानने योग्य हैं किन्तु आचरण करने योग्य नहीं है उनमें से जो कोई अतिचार लगा है उनकी मैं आलोचना करता हूँ । यथा १. वीतराग के वचन में शंका की हो २. परदर्शन की आकांक्षा की हो २. धर्म के फल में संदेह किया हो या साधु साध्वी के मलिन वस्त्र देख कर घृणा की हो ४. परपाखंडी की प्रशंसा की हो ५. परपाखंडी का परिचय किया हो, मेरे सम्यक्त्व रूप रत्न पर मिथ्यात्व रूपी रज मैल लगा हो तो मेरे वे सब पाप निष्फल हो । विवेचन - इस पाठ में सम्यक्त्व का स्वरूप बताया है। शंका - अर्हत को ही देव क्यों कहा गया है ? समाधान - क्योंकि वे अज्ञान, निद्रा, मोह, मिध्यात्व, अविरति, कुदर्शन व घाती कर्मों से रहित हो कर परम वीतरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् होते हैं। जिनको देवाधिदेव भी कहते हैं । ऐसे गुण अन्य देवों में नहीं होते हैं । सुसाहणी ( सुसाधु) - जिनेश्वर भगवान् के मार्ग पर चलने वाले, पंच महाव्रत के धारक, पांच समिति तीन गुप्ति के आराधक, छह काया के रक्षक, तप एवं संयम युक्त जीवन व्यतीत करने वाले साधुओं को सुसाधु कहते हैं । - Jain Education International परमत्थ (परमार्थ) - नवतत्त्व को परमार्थ कहते हैं । परमार्थ से जीव अजीव का ज्ञान होता है। धर्म का स्वरूप समझ में आता है और आत्मोन्नति करने की विधि मालूम होती है । परमार्थ के जानने वालों की सेवा से नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती है। शंका का निवारण होता है। सत्यासत्य का निर्णय होता है। अतिचार शुद्धि होती है। नई प्रेरणा मिलती है। ज्ञान दर्शन चारित्र निर्मल व दृढ़ होता है । शंका- जिन वचनों में शंका क्यों होती है, उसे कैसे दूर करना चाहिये ? समाधान - १. बुद्धि की न्यूनता के कारण २. सम्यक् रूप से समझाने वाले गुरुओं के अभाव में ३. जीव- अजीवादि भावों का गहन स्वरूप होने से ४. ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से अथवा ५. हेतु दृष्टांत आदि समझने के साधनों के अभाव में कोई विषय यथार्थ रूप से समझने में नहीं आ पाता है तो शंका की संभावना रहती है। ऐसी स्थिति में जीव भगवान् के केवलज्ञान और वीतरागता का विचार करके, अपनी बुद्धि की मंदता को सोचकर शंका दूर करे तथा यह सोचे कि - "तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं" जिनेश्वर भगवान् ने जो प्ररूपित किया है वहीं यथार्थ है, सत्य है। क्योंकि भगवान् राग, द्वेष, मोह और अज्ञान से अतीत (रहित ) है । अतः भगवान् का वचन पूर्णतः सत्य ही है । For Personal & Private Use Only १४७ .... - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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