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श्रमण आवश्यक सूत्र - दर्शन सम्यक्त्व का पाठ
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भावार्थ- हे पूज्य! मैं आपके द्वारा आज्ञा मिलने पर दिवस संबंधी प्रतिक्रमण करता हूँ। दिवस संबंधी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के अतिचार का चिंतन करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ।
विवेचन - "इच्छामि णं भंते" का पाठ प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने का पाठ है। इसमें प्रतिक्रमण करने की और ज्ञान दर्शन चारित्र में लगे अतिचारों का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करने की प्रतिज्ञा की जाती है। प्रमुख शब्दों के विशेष अर्थ इस प्रकार है -
णाण - 'ज्ञान' वस्तु के विशेष स्वरूप को जानना 'ज्ञान' कहलाता है । . दसण - 'दर्शन' जिन प्ररूपित नव तत्त्वों पर श्रद्धा करना दर्शन है । चरित्त - 'चारित्र' पापों का सर्वथा त्याग करना 'चारित्र' कहलाता है।
तव - 'तप' - जिस क्रिया द्वारा आत्मा से संबद्ध कर्म तपाये जाते हैं अर्थात् नष्ट होते हैं। जैसे अग्नि में तपने पर सोना निर्मल बन जाता है।
अइयार (अतिचार) - व्रतों में लगने वाले दोषों को अतिचार कहते हैं। व्रत का 'एकांश भंग अतिचार और सर्वांश भंग अनाचार है। अर्थात् प्रत्याख्यान का स्मरण नहीं रहने पर या शंका से व्रत में जो दोष लगता है वह अतिचार है और व्रत तोड़ देना अनाचार है। मंद अतिचार का प्रायश्चित्त हार्दिक पश्चात्ताप और तीव्र अतिचारों का प्रायश्चित्त नवकारसी आदि तप है।
काउस्सग्ग (कायोत्सर्ग) - शरीर से ममत्व हटाकर एकाग्र चित्त से ध्यान करना कायोत्सर्ग है।
दर्शन सम्यक्त्व का पा० .. अरहंतो ० महदेवो, जावज्जीवाए ® सुसाहुणो गुरुणो। . जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ॥ १ ॥ परमत्थसंथवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि । वावण्ण कुदंसणवजणा, य सम्मत्त सद्दहणा ॥ २ ॥ इअ सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा
पाठान्तर -0 अरिहंतो ® जावजीवं
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