________________
१४४
- आवश्यक सूत्र – परिशिष्ट प्रथम
ज्ञान दर्शन आदि मूल शक्तियों को आच्छादित (ढके हुये) किये हुए रहते हैं अतः वे छद्म कहलाते हैं। जो इस छद्म से पूर्णतया अलग हो गये वे केवलज्ञानी व्यावृत्त छद्म कहलाते हैं। दूसरे अर्थ से छल और प्रमाद से रहित हों, वे व्यावृत्त छद्म कहलाते हैं। इस पाठ को "शक्रस्तव" भी कहते हैं।
किन्हीं किन्हीं प्रतियों में "दीवताणसरण-गइपइट्ठाणं" के स्थान पर "दीवोताणं सरणगइपइट्ठा" पाठ भी मिलता है।
इच्छामि णं भंते का पाठ इच्छामि णं भंते के पाठ से गुरुदेव से दिवस संबंधी प्रतिक्रमण करने की आज्ञा मांगी जाती है और दिवस संबंधी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में लगे अतिचारों का चिंतन करने के लिए-भूलों को समझने के लिए काउस्सग्ग की इच्छा की जाती है।
इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे देवसियं. पडिक्कमणं ठाएमि देवसिय णाण-दंसण-चरित्त-तव-अइयार चिंतणत्थं करेमि काउस्सग्गं।
कठिन शब्दार्थ - इच्छामि - इच्छा करता हूँ, णं - अव्यय है, वाक्य अलंकार में आता है, भंते! - हे पूज्य! हे भगवन्!, तुब्भेहिं - आपकी, अब्भणुण्णाए समाणे - आज्ञा मिलने पर, देवसियं - दिवस सम्बन्धी, पडिक्कमणं - प्रतिक्रमण को, ठाएमि - करता हूँ, देवसिय - दिन सम्बन्धी, णाण - ज्ञान, दंसण - दर्शन, चरित्त - चारित्र, तव - तप, अइयार - अतिचार, चिंतणत्यं - चिन्तन करने के लिए, करेमि - करता हूँ, काउस्सग्गं - कायोत्सर्ग को।
. जहाँ जहाँ 'देवसियं' शब्द आवे वहां वहां 'देवसियं' के स्थान पर रात्रिक प्रतिक्रमण में "राइयं", पाक्षिक में 'देवसियं पक्खियं', चातुर्मासिक में 'चाउम्मासियं' और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में "संवच्छरियं" शब्द बोलना चाहिए।
® जहाँ जहाँ 'देवसिय' शब्द आवे वहां वहां "देवसिय" के स्थान पर रात्रिक प्रतिक्रमण में "राइय", पाक्षिक में "देवसिय पक्खिय", चातुर्मासिक में "चाउम्मासिय" और सांवत्सरिक में "संवच्छरिय" शब्द बोलना चाहिए।
पाठान्तर - चिंतवणत्थं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org