________________
१४२
आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम .0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रोग रहित, अणंतं - अंन्त रहित, अक्खयं - क्षय रहित, अव्वाबाहं - बाधा पीड़ा रहित, अपुणरावित्ति - पुनरागमन से रहित (ऐसे), सिद्धि गइ - सिद्धि गति, नामधेयं - नामक, ठाणं - स्थान को, संपत्ताणं - प्राप्त हुए, जियभयाणं - भय को जीतने वाले, जिणाणं - जिन भगवान् को, णमो - नमस्कार हो, संपाविउकामाणं - मोक्ष पाने की इच्छा वाले। ____ नोट - दूसरे णमोत्थुणं में 'ठाणं संपत्ताणं' के स्थान पर 'ठाणं संपाविउकामाणं' पाठ बोलना चाहिए। तीसरा णमोत्थुणं - "णमोत्थुणं मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणसेट्ठस्स।"
आगमों में निकट उपकारी के लिए णमोत्थुणं' देने का विधान है। सिद्ध भगवान् जीवन का साध्य होने से उन्हें निकट उपकारी समझा गया है। सिद्धों में भी प्रमुख रूप से तीर्थंकर सिद्धों को ही ‘णमोत्थुणं' दिया जाता है। णमोत्थुणं के विशेषण तीर्थंकर सिद्धों में ही घटित होते हैं। निकट उपकारी तीर्थंकरों के विद्यमान होते हुए भी सिद्धों को तो 'णमोत्थुणं' दिया ही जाता है। इससे सिद्धों को 'णमोत्थुणं देने की अनिवार्य परम्परा स्पष्ट होती है। जीवन का साध्य सबसे निकट उपकारी है। उसे प्राप्त करने की भावना से सिद्धों को सर्वत्र ‘णमोत्थुणं' देने का वर्णन उपलब्ध होता है। दूसरा ‘णमोत्थुणं' विद्यमान शासनपति तीर्थंकर को दिया जाता है। उनके मोक्ष पधार जाने पर उनके शासन में सिद्धों के 'णमोत्थुणं' में उनका अतभाव हो जाने से तीर्थंकरों को अलग से णमोत्थुणं देने की आगमीय परम्परा नहीं है। अन्य क्षेत्र के तीर्थंकरों को णमोक्कार से वंदना की जाती है। णमोत्थुणं निकट उपकारी के लिए होने से उन्हें 'णमोत्थुणं' नहीं दिया जाता। आगमकालीन युग में जिनसे धर्म की प्राप्ति हुई उन उपकारी गुरु को भी (चाहे वह साधु हो या श्रावक हो) णमोत्थुणं' देने की आगमीय परम्परा रही है। वर्तमान में गुजरात में समुच्चय रूप से गुरु को ‘णमोत्थुणं' देने की परम्परा है। अलग-अलग उपकारी गुरु के नामोल्लास से गणभेदादि की आशंका से इधर गुरु को ‘णमोत्थुणं' देने की परम्परा नहीं रही है। गुजरात की तरह समुच्चय रूप से गुरु को 'णमोत्थुणं' देने में बाधा नहीं समझी जाती है। वर्तमान में सर्वत्र तीर्थंकरों को ‘णमोत्थुणं' देने की परम्परा है। आगमकाल में यह परम्परा नहीं थी।
विवेचन - णमोत्थुणं में तीर्थंकर भगवान् की स्तुति की गई है। इस स्तुति में अहँत और सिद्धों के गुणों को प्रकट कर उन्हें श्रद्धा से नमन किया गया है।
आइगराणं - द्वादशांगी की अपेक्षा धर्म की आदि करने वाले।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org