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कायोत्सर्ग - प्रायश्चित्त का पाठ
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चत्तारि" दो' दुवालस", वीसं चत्तालीसं० हुँति उज्जोय । देवसिय राइय पक्खिय, चाउम्मासे य वरिसे य ॥१८॥ पणवीस" अद्धतेरस १२, सिलोग पन्नत्तरी" य बोद्धव्वा । सयमेगं पणवीसं १२५, बे बावण्णा५२ य वरिसम्मि ॥ १८४॥ सायं सर्य गोसद्धं ५० तिन्नेव०० सया हवंति पक्खम्मि । पंच'०० य चाउम्मासे, वरिसे अट्ठोत्तर १००८ सहस्सा ॥ १८५॥
दैवसिक को ४ लोगस्स का, रात्रिक को २ लोगस्स का, पाक्षिक को १२ लोगस्स का, चातुर्मासिक को २० लोगस्स का एवं सांवत्सरिक को ४० लोगस्स एवं एक नमस्कार सूत्र का काउस्सग्ग करना चाहिये ॥ १८३॥
(एक लोगस्स 'चंदेसु णिम्मलयरा' तक बोलने से ६ गाथा प्रमाण होता है अतः दूसरी गाथा में गाथाओं की संख्या बतायी गई है ।)
(एक गाथा में चार श्वासोच्छ्वास होने से एक लोगस्स में २५ श्वासोच्छ्वास होते हैं।) .- दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक को क्रमशः २५, १२२, ७५, १२५, २५२ गाथा प्रमाण ध्यान करना चाहिये ॥ १८४॥
- दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक को क्रमशः १००, ५०, ३००, ५००, १००८ श्वासोच्छ्वास का ध्यान करना चाहिये ॥ १८५ ॥ .. संवत्सरी को कायोत्सर्ग में ४० लोगस्स और १ नमस्कार सूत्र का ध्यान करने से १००८ श्वासोच्छ्वास प्रमाण होता है ।
गाथा नं. १८३ में यद्यपि रात्रिक प्रतिक्रमण में दो लोगस्स के कायोत्सर्ग का ही विधान है तथापि आजकल रात्रिक प्रतिक्रमण में ४ लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है, क्योंकि इस गाथा की टीका में बताया गया है कि यद्यपि रात्रिक प्रतिक्रमण में दो लोगस्स का कायोत्सर्ग तथा दो लोगस्स जितना तप रूप चिन्तन करने का वर्णन है तथापि प्रत्येक साधक से तप रूप चिंतन करना संभव नहीं होने से पूर्वाचार्यों ने दो लोगस्स का कार्योत्सर्ग+दो लोगस्स (तप रूप चिंतन के स्थान पर)-४ लोगस्स के कायोत्सर्ग का विधान निर्धारित किया है। . .
|| पांचवां अध्ययन समाप्त॥
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