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________________ १२४ आवश्यक सूत्र - पंचम अध्ययन हे भगवन्! कायोत्सर्ग करने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है? इसके उत्तर में प्रभु फरमाते हैं कि - "काउस्सग्गेणं तीय पडुप्पण्णं पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे णिव्वुयहियए ओहरिय भरुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ" __- कायोत्सर्ग करने से भूतकाल और वर्तमान काल के दोषों का प्रायश्चित्त करके जीव. शुद्ध बनता है और जिस प्रकार बोझ उतर जाने से भारवाहक (मजदूर) सुखी होता है उसी प्रकार प्रायश्चित्त से विशुद्ध बना हुआ जीव शांत हृदय बन कर शुभ ध्यान ध्याता हुआ सुखपूर्वक विचरता है। प्रायश्चित्त का पाठ देवसिय पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं। कठिन शब्दार्थ - पायच्छित्त - प्रायश्चित्त, विसोहणत्थं - विशुद्धि के लिये। भावार्थ - मैं दिवस संबंधी प्रायश्चित्त की शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करता हूं। विवेचन - आगम साहित्य में कायोत्सर्ग के दो भेद किये गये हैं - द्रव्य और भाव। द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है - शरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर जिनमुद्रा से निश्चल एवं निःस्पंद स्थिति में खड़े रहना। यह साधना के क्षेत्र में आवश्यक है परन्तु भाव के साथ। केवल द्रव्य का जैनधर्म में कोई महत्त्व नहीं है। साधना का प्राण है - भाव। भाव कायोत्सर्ग का अर्थ है - आर्त, रौद्र ध्यानों का त्याग कर धर्म तथा शुक्लध्यान में रमण करना, मन में शुभ विचारों का प्रवाह बहाना, आत्मा के मूल स्वरूप की ओर गमन करना। कायोत्सर्ग में ध्यान की ही महिमा है। __कायोत्सर्ग करते समय यद्यपि अन्यान्य पाठों का भी उच्चारण किया जाता है परंतु वर्तमान में 'लोगस्स' का ध्यान ही इसका प्रमुख अंग है। देवसिय राइय प्रतिक्रमण' में ४, पक्खी प्रतिक्रमण में १२, चौमासी प्रतिक्रमण में २० और संवत्सरी प्रतिक्रमण में ४० लोगस्स का काउस्सग्ग करने की प्राचीन परंपरा है। __ प्रवचन सारोद्धार (पूर्व भाग) प्रतिक्रमण द्वार की गाथा नं. १८३, १८४, १८५ में कायोत्सर्ग में कितने लोगस्स और श्वासोच्छ्वास का ध्यान करना यह बताया गया है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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