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प्रतिक्रमण - प्रतिज्ञा सूत्र ( नमो चवीसाए का पाठ)
सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि (शिर से, मन से और मस्तक से वंदना करता हूँ) प्रश्न होता है कि शिर और मस्तक तो एक ही है फिर यह पुनरुक्ति क्यों ? इसका समाधान यह है कि शिर, समस्त शरीर में मुख्य है। अतः शिर से वंदन करने का अभिप्राय है शरीर से वंदन करना। मन, अंतःकरण है अतः यह मानसिक वंदना का द्योतक है। 'मत्थएण वंदामि' का अर्थ है मस्तक झुकाकर वंदन करता हूं, यह वाचिक वन्दना का रूप है। अस्तु मानसिक, वाचिक और कायिक विविध वंदना का स्वरूप निर्देश होने से पुनरुक्ति दोष नहीं है।
प्रश्न
'असंजमं परियाणामि' आदि ८ बोलों का परस्पर क्या सम्बन्ध है ? उत्तर- जिस प्रकार चौथे श्रमण सूत्र में एक असंयम के प्रतिक्रमण में सभी बोलों का समावेश हो जाने पर भी साधारण साधक अच्छी तरह प्रतिक्रमण कर सकें, उसी असंयम को तेंतीस बोलों के द्वारा उचित्र विस्तार करके समझाया है। इसी प्रकार पांचवें श्रमण सूत्र में भी समझना चाहिए। अर्थात् संयम के स्वीकार में ब्रह्मचर्यादि का समावेश हो जाने पर भी अधिक सजगता के लिए आठ बोल अलग दिए हैं।
सर्वप्रथम साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं आराधना के लिए कटिबद्ध हुआ हूँ और विराधना से निवृत्त हुआ हूँ। यह कोई बोल नहीं है यह तो प्रतिज्ञा मात्र है । आगे आराधना के लिए किन्हें स्वीकार करता हूं और किनका त्याग करता हूं । साधक इसका ब्योरा पेश करता हैं। इस ब्योरे में सर्वप्रथम असंयम का त्याग और संयम को स्वीकार करता है, अपने संयम की सुरक्षा के लिए आगे अब्रह्म का त्याग एवं ब्रह्म को स्वीकार करता है । अपने ब्रह्म की रक्षा के लिए (सदोष एवं प्रणीत आहारादि) का त्याग एवं कल्प को स्वीकार करता है, ज्ञान के बिना यह सम्भव नहीं होने से आगे अज्ञान का त्याग और ज्ञान को स्वीकार करता है, ज्ञान के द्वारा जब अपने आचरण को देखता है तब वह जिनवाणी की आज्ञा से विपरीत आचरण रूप अक्रिया का त्याग करता है और भगवदाज्ञानुसार शुद्ध आचरण रूप क्रिया को स्वीकार करता है। ज्ञान और क्रिया की शुद्धि सम्यक् श्रद्धान पर ही स्थायी रह सकती है। अतः मिथ्या श्रद्धान रूप मिथ्यात्व का त्याग करता है और सम्यक् श्रद्धान रूप सम्यक्त्व को स्वीकार करता है। आत्म जागृति के अभाव में नन्द मणियार की तरह साधक पुनः मिथ्यात्व में जा सकता है, इसलिए साधक अबोधि का त्याग करता है और आत्म जागृति रूप बोधि
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