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किसी दूसरी विपत्ती एवं दूसरे कारण से मूर्ति खण्डित होती तो खण्डित मूर्तियाँ विसर्जित की गई होतीं । हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि पहला मन्दिर कुतुबुद्दीन ऐबक ने सन्११६४ ई. में तोड़ा व कुछ दशक तक उनके अधिकारियों ने पुनः बनने नहीं दिया तत्पश्चात् पुनः निर्माण के समय भी दहशत बनी हुई थी उससे पुरानी मूर्तियाँ विसर्जित करने का अवसर नहीं मिला व वो सब नीव में ही दबी रह गईं।
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पहले समय में बेदी के नीचे कलश, यंत्र, सिक्के आदि रखे जाते थे । जो बाद में प्रमाणित इतिहास बनाने मे समर्थ होते थे । लोहानी पुर में मौर्य युगीन जैन मर्तियों के साथ मौर्य युगीन सिक्का भी मिला जिससे इस मूर्ति का इतिहास प्रमाणिक रूप से सिद्ध है । यहाँ पर मूर्ति के प्राप्ति स्थान के नीचे व पास में कलश व सिक्के खोजने का प्रयत्न किया गया सो कहीं नहीं मिला । कुतुबुद्दीन की सेना ने मन्दिर लूटने की नीयत से तोड़े । उसके सैनिकों ने अवश्य ही वेदी उखाड़ कर कलश जिसमें प्रायः स्वर्ण व रजत् सिक्के भी होंते थे लूटा होगा । यहाँ से प्राप्त मूर्तियों का अध्ययन- प्रो. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक पार्श्वनाथ जन्म भूमि मन्दिर, वाराणसी का पुरातात्त्वीय वैभव में बड़े सुन्दर व विचारात्मक तरीके से लिखा है । यहाँ हम मूर्तियों के साथ उन दूसरे अवशेषों की विवेचना भी करेगें जो वहाँ से प्राप्त हुये हैं व उनके आधार पर इस मन्दिर का इतिहास पिरोयेंगे ।
प्राप्त अवशेषों का अध्ययन :
१- इन सब अवशेषों में सबसे प्राचीन एक स्तम्भ का भाग है जिसमें चारो तरफ तीर्थकरों की मूर्तियाँ बनी हैं । यह चित्र ६ पर प्रदर्शित है यह स्तम्भ प्रो. सागरमल द्वारा लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. का बतलाया गया है । यह स्तम्भ किसी मानस्तम्भ का शीर्ष भाग है । ऊपर व नीचे दोनों ओर पत्थर टूटा हुआ स्पष्ट है । इस स्तम्भ में तीन मूर्तियाँ ऋषभ, पार्श्व व महावीर की उनके लांछन से निर्विवादित पहचानी गयी हैं। चौथी मूर्ति चित्र ७ के नीचे कमल उसी प्रकार बना है जैसे अन्य मूर्तियों में ऋषभ, सर्प व शेर बना है । यह चौथी मूर्ति पद्मप्रभू भगवान की मानी जानी चाहिए । उपरोक्त पुस्तक में इसे अरिष्टनेमी की मूर्ति कहा है।
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