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प्राचीन जैन मूर्ति छठी शताब्दी की भगवान महावीर की है । पार्श्वनाथ की राज़घट से प्राप्त सबसे प्राचीन मूर्ति आठवीं शदी ई. की है जो राजकीय संग्रहालय लखनऊ में है ।
भेलूपुर के मन्दिर निर्माण की पृष्ठ भूमि
यहाँ के मन्दिर की फोटो व मध्य एंव दायें वेदी की फोटो जो ई. सन् १६८६ में ली गई है, श्री सुनील कुमार जैन के सौजन्य से प्राप्त हुई जो क्रमांक १,३ व ४ पर है । मध्य की वेदी की फोटो ई. सन् १९७४ में छपी, एवं ई. सन् १६७१ के लगभग ली गई, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ से लेकर क्रमांक २ पर दी जा रही है । श्री वीरेन्द्र कुमार जैन की स्मृति में ३० वर्ष पूर्व परन्तु उपरोक्त चित्र २ व ३ की तुलना करने से वर्ष १६७१ ई. के बाद ई. सन् १८२४ में पोंसा पर्वत पर प्रतिष्डित काले पाषाण की पार्श्व प्रभू के मूर्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर, इस काले पाषाण की मूर्ति को मुख्य वेदी के मुख्य स्थान पर स्थापित किया गया। पूर्व में इस स्थान पर स्थापित सफेद पाषाण की पार्श्व प्रभू की मूर्ति अब दायें तरफ की वेदी में स्थापित है ।
मुख्य मंदिर के बाहर आंगन के अन्दर क्षेत्रपाल की वेदी थी जिसकी ई. सन् १६८६ को फोटो क्रमांक ५ पर श्री सुनील कुमार जैन के सौजन्य से संलग्न है । यह मन्दिर खूबसूरती से पेन्टेड था परन्तु छोटा था । नेपाल राज्य की कोई रानी वाराणसी रहती थी वो जैन धर्म से प्रभावित थीं । उन्होंने इस मंदिर की तीन वेद में से एक पर संगमरमर लगाया था । चित्र १ में दिखने वाली दिवार आंगन की दिवार है जो पुरानी है । दिगम्बर व श्वेताम्बर भूमि बंटवारा होने के पश्चात इस दिवार में, चित्र में दिखने वाला उत्तराभिमुखी दरवाजा व सीढ़ियां बनाई गई पूर्व में इस आंगन में पूर्वाभिमुखी दरवाजे से प्रवेश होता था । नवनिर्माण की आकांक्षा से इस मन्दिर का आमूल तोड़कर ई. सन् १८८६ में क्षमावार्णी के दिन नये मंदिर की नींव रखी गयी एवं दीपावली ई. सन् १६६० में इस नवनिर्मित मंदिर में समारोह पूर्वक मूर्तियाँ स्थापित कर दी गयीं ।
पुराना मंदिर मिट्टी के ऊँचे टीले पर निर्मित था । इस मन्दिर की कुर्सी की ऊँचाई लगभग मौजूदा मन्दिर के प्रथम तल तक थी। यह सब कुर्सी तोड़कर बाहर फेंकी गई तो नीचे नींव में काफी पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई । उसमें से जो भी पत्थर खुदा हुआ था उसे रख लिया गया व शेष ईंट पत्थर नये मन्दिर
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