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लिखाई के आधार पर यह मूर्ति ईसा की १३ वीं शताब्दी की है । इस प्रकार यह सही प्रतीत होता है कि यह मूर्ति तहखाने से मिली, मन्दिर के नीचे नीव से नही । यह अवश्य ही पुनः निर्माण के समय बनाई गयी होगी । जो सम्भवतः मन्दिर के दूसरे विध्वंश में खण्डित हुई ।
७- यहाँ से कुल ४० अवशेष प्राप्त हुए जो सब पुरावशेष एवं बहुमूल्य कलाकृति, वाराणसी के यहाँ नवम्बर १६६५ से फरवरी १६६६ के मध्य दिगम्बर जैन समाज, काशी, के. ३६ / ५०-५१ ग्वालदास साहू लेने, बुलानाला, वाराणसी के नाम पर राजिस्टर्ड हैं।
प्रथम मन्दिर का विध्वंश :
श्री कुबेरनाथ शुक्ल का कहना है कि ई. सन् १०३५ में वाराणसी को श्री नियालितिगिन ने लूटा यद्यपि वो स्वयं इस शहर में कुछ घंटे को ही रूक ldki og unhdsjkrsvkgk था । यह मन्दिर नदी से दूर था । हो सकता है उस समय राजघाट के जैन मन्दिर को उसने लूटा. . हो ।
श्री शुक्ल पुन: कहते हैं कि इसके तुरन्त बाद मुहम्मद गजनवी के भतीजे सालार मसूद का एक शिष्य इसलाम धर्म को फैलाते पश्चिम से बनारस में उस स्थान तक पहुँचा जहाँ अब काशी रेलवे स्टेशन है परन्तु उसे घमासान युद्ध में हारना पड़ा । इस प्रकार इस आक्रमण कर्ता का प्रभाव भी इस मन्दिर पर पड़ने की सम्भावना नहीं है ।
श्री शुक्ल आगे लिखते हैं कि बनारस पर पुनः मुहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने सन् ११६४ में आक्रमण किया व इस बार मुसलमान सेना की विजय हुई ६ । राजघट का किला बरबाद कर दिया गया एवं मुसलमान इतिहासकार लिखते है कि बनारस में १००० मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया एवं उसकी सम्पत्ति व बनारस की लूट की संपत्ति १४०० ऊँटों पर लाद कर भेजी गयी ।
इस विवरण से स्पष्ट है कि राजघाट का जैन मन्दिर एवं भेलूपुर का जैन मन्दिर कुतुबुद्दीन ऐबक ने ११६४ ई. में तोड़ा है ।
श्री
शुक्ल लिखते है कि बनारस कुतुबुद्दीन के कब्जे से निकल गया एवं
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