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प्रकाशकीय
‘वररुचिप्राकृतप्रकाश' प्राकृत अध्ययनार्थियों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है ।
प्राकृत भाषा जन साधारण की भाषा के रूप में प्राचीन समय से ही विकास को प्राप्त होती रही है। भगवान महावीर ने इसी जन - भाषा 'प्राकृत' को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। जन सामान्य की यही भाषा कुछ समय बाद साहित्यिक भाषा के रूप में हमारे सामने आई । प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश के रूप में विकसित होती हुई हिन्दी एवं प्रादेशिक भाषाओं का स्रोत बनी।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन में प्राकृत का अध्ययन आवश्यक है। प्राकृत भाषा का सम्बन्ध भारतीय आर्यभाषा के सभी कालों से रहा है । प्राकृत के अध्ययन के बिना आधुनिक आर्यभाषाओं की चर्चा पूर्ण नहीं हो सकती। किसी भी भाषा को सीखने-समझने के लिए उसके व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है ।
भाषाज्ञान की दृष्टि से वररुचि का 'प्राकृतप्रकाश' बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । ईसा की तृतीय - चतुर्थ शताब्दी में रचित इस ग्रन्थ का प्राकृत अध्ययन के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। प्राकृत व्याकरण के उपलब्ध ग्रन्थों में वररुचि का 'प्राकृतप्रकाश' असन्दिग्ध रूप से प्राचीन है। इसमें प्राकृत व्याकरण के सूत्र संस्कृत भाषा में रचित हैं प्राकृत के विविध नियमों का विस्तृत विवेचन होने के कारण इस ग्रन्थ का विद्वत् जगत में काफी प्रचार एवं प्रसार हुआ है । अपनी रचनाशैली की सहजता और व्यापकता के कारण यह ग्रन्थ अपने रचनाकाल से ही काफी लोकप्रिय रहा है। प्राकृत भाषा के अध्ययन के लिए इस ग्रन्थ का महत्व असंदिग्ध है । इसके महत्व और आवश्यकता को देखते हुए ही विभिन्न कालों में इसकी अनेक टीकाएँ लिखी
गईं।
इसमें बारह परिच्छेद हैं। पाँचवें व छठे परिच्छेद में क्रमशः संज्ञा व सर्वनाम के सूत्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक में प्राकृत व्याकरण के इन्हीं संज्ञा व सर्वनाम के सूत्रों
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