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जाता है, क्योंकि (उस समय) शेष (गुणों) के कहने की इच्छा नहीं (है)।
169. अपने अपने (कथन) की प्रशंसा करते हुए तथा (अपने से)
भिन्न (कथन) की निन्दा करते हुए जो उस अवसर पर विद्याडम्बरी की तरह आचरण करते हैं, वे संसार (विषमता)
पर विविध तरह से आश्रित हुए हैं)। । 170. भांति-भांति के जीव (हैं), भाँति-भाँति का (उनका) कर्म
है, (तथा) भिन्न-भिन्न प्रकार की (उनकी) योग्यता होती है; इसलिए स्व-पर मत से वचन-कलह को (तुम) दूर हटायो।
चयनिका ]
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