SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 76. जैसे हाथी के लिए अंकुश (है) तथा नगर के लिए खाई भी (है), (वैसे ही) इन्द्रियों के संयम में परिग्रह का त्याग (है); (और) इन्द्रिय-संयम (ही) अनासक्तता है। 77. सचमुच ही यह ज्ञानी (होने) का सार (है) कि (ज्ञानी) किसी की भी हिंसा नहीं करता है। वे (जिन) निश्चय ही अहिंसा और समता को इतना (महत्वपूर्ण) जानकर (इस बात को कहते हैं)। 78. सब ही जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं, इसलिए संयत (व्यक्ति) पीड़ादायक प्राणवध का परित्याग करते हैं। 79. जैसे तुम्हारे (अपने) लिए दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार (दूसरे) सब जीवों के लिए जानकर उचित रूप से सब (जीवों) से स्नेह करो (तथा) अपने से तुलना के द्वारा (उनके प्रति) सहानुभूति (रक्खो)। 80. जीव का घात खुद का घात (होता है), जीव के लिए दया खुद के लिए दया होती है; उस कारण से यात्म-स्वरूप को चाहने वालों के द्वारा सब जीवों की हिंसा छोड़ी हुई (है)। 81. देख ! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) मारे जाने योग्य मानता है । देख ! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) शासित किए जाने योग्य मानता है। 82. रागादि का उत्पन्न न होना अहिंसकता (है)। इस प्रकार (यह) सिद्धान्त में कहा गया है । यदि उनकी उत्पत्ति (है), (तो). (वह) जिन द्वारा निश्चय ही हिंसा कही गई (है)। चयनिका ] [ 29 Jain Education International . ..For Personal & Private Use Only : www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy