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58. जो जो रात्रि बीतती है, वह लौटती नहीं है । अधर्म करते हुए (व्यक्ति) की रात्रियाँ व्यर्थ होती हैं ।
59. आत्मा आत्मा से जानता है ( कि) वास्तविक धर्म आत्मसाक्षीपन ( है ) । आत्मा उसको (आत्म साक्षीपन को ) इस तरह से कार्य में परिणत करता है, जिससे ( वह ) स्वरूप ( से उत्पन्न ) सुख को प्राप्त करने वाला होता है ।
60. ( मेरी ) आत्मा (ही) वैतरणी नदी '
( है ), अर्थात् ( आत्मा ) ही पाप - युक्त (होती है); (मेरी) आत्मा (ही) मेरे लिए कूटशाल्मलि ' (वृक्ष) ( है ), अर्थात् ( आत्मा ) (ही) (अपने लिए) दुःख - प्रद ( होती है), (मेरी) आत्मा (ही) काम दुधा गाय (है), अर्थात् ( आत्मा ) (ही) इच्छित पदार्थों को देने वाली (होती है); (और) (मेरी) आत्मा (ही) मेरे लिए इन्द्र का उपवन ( है ), अर्थात् ( आत्मा ) (ही) आनन्द देने वाला निवास स्थान ( है ) ।
61. आत्मा सुखों और दुःखों का कर्ता (है) तथा ( उनका ) अकर्ता भी ( है ) । शुभ में स्थित आत्मा मित्र ( है ) और अशुभ में स्थित ( आत्मा ) शत्र (है) ।
62. (संक्षेप में कहें तो ) न जीती गई आत्मा ही केवल शत्रु, (होती है ) ; ( विस्तार से कहें तो ) कषाएँ और इन्द्रिय-विषयासक्ति ( शत्रु ) (होती हैं) । ( इसलिए ) हे ज्ञानी ! उनको उचित रीति से जीतकर ( मैं ) ( जगत् में) रहता हूँ ।
1 नरक की प्रति दुर्गन्धित नदी ।
2 नरक में तेज कांटों से युक्त वृक्ष ।
3 सभी इच्छात्रों को पूरा करनेवाली काल्पनिक गाय | 4 केवलज्ञान अवस्था में श्रात्मा सुख-दुःख का कर्ता नहीं होता है ।
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