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________________ 53. (परमार्थतः) मैं निश्चय ही सर्वोच्च (और) शुद्ध (आत्मा) (हूँ)। (मैं) दर्शन-ज्ञानमय (हूँ) (तथा) सदा अरूपी (हूँ)। इस (आत्मा) के अलावा, अन्य थोड़ी सी परमाणुमात्र भी (वस्तु) मेरी नहीं है। . 54. (हम) जिनके लिए कुछ भी (अपना) नहीं है सुखपूर्वक रहते हैं और जीते हैं । (यह बात ऐसे ही है जैसे राजा जनक ने कहा था कि) जलाई जाती हुई मिथिला में मेरा कुछ भी नहीं जलाया जाता है, (इसलिए हम सुखपूर्वक रहते हैं और जीते हैं)। 55. जैसे जल में उत्पन्न कमल पानी से नहीं लीपा जाता है, उसी प्रकार इच्छाओं के द्वारा (जो) (व्यक्ति) नहीं लीपा गया है, उसको हम अहिंसक करते हैं। 56. जिसके (जीवन में) आसक्ति नहीं होती है, (उसके द्वारा) दुःख नष्ट कर दिया गया है। जिसके (जीवन में) तृष्णा नहीं होती है, (उसके द्वारा) आसक्ति नष्ट की गई (है); जिसके (जीवन में) लोभ नहीं होता है, (उसके द्वारा) तष्णा नष्ट की गई (है); जिसके (पास) कुछ भी (वस्तुएँ) नहीं (हैं), (उसके . द्वारा) लोभ नष्ट किया गया (है)। 57. यदि (व्यक्ति) पार करने में अत्यन्त कठिन इन कामासक्तियों को पारः करके (समाज में जीता है), (तो) (उसकी) शेष (आसक्तियाँ) भी (समाप्त) हो जाती हैं। उदाहरणार्थ, महासागर को पार करके (जो) (बाहर) (आया है), (उसके लिए) गंगा के समान नदियों को भी (पार करना) (सरल) हो जाता है। . . . चयनिका ] [ 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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