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प्ररहंत सशरीरी होने के कारण समाज में मूल्यात्मक चेतना के विकास के लिए कटिबद्ध रहते हैं । अरहंत उच्चतम भ्रात्मानुभव और लोक-कल्याण की मूर्ति हैं । अरहंत की प्रतिष्ठा श्रात्मानुभव और परार्थ- दोनों की प्रतिष्ठा है। प्ररहंत की भक्ति केवलज्ञान के साथ लोक किल्यारणात्मक चेतना को प्रपने में जगाने की प्रक्रिया है । अरहंत प्रौर सिद्ध देव हैं, किन्तु अरहंत गुरु भी हैं । देवत्व और गुरुत्व . ये दोनों विशेषताएँ प्ररहंत को सुशोभित करती हैं । अतः अरहंत को सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है ।
पुरणात्मक शरण :
हम सभी एक दूसरे के सहारे से जीते हैं। किन्तु, मानसिक शांति के लिये ये सहारे अपर्याप्त होते हैं। अतः अरहंतों, सिद्धों और साधुयों की शरण में जाने की आकांक्षा व्यक्त की गई है (5) । जहां यह सम्भव न हो, वहां मात्मानुभवी की वारंगी की शरण उपयोगी हो सकती है ( 5 ) । इसीलिए श्रात्मानुभवी और प्राणियों के मार्गदर्शक व्यक्ति की वारणी को प्रणाम किया गया है ( 13 ) । किन्तु, ऐसी वाणी का व्याख्याता गुरणवान्, गम्भीर, आभायुक्त, सौम्य तथा सिद्धान्त की समझ से युक्त व्यक्ति होना चाहिए ( 14 ) । यहां यह जानने योग्य है कि गुरणात्मक शरण गुणात्मक अनुभूति की जनक है और गुणियों की खोज में मनुष्य को संलग्न करती है। गुरणों की शरण से श्रात्म जागृति उत्पन्न होती है । यह निश्चित है कि जो जिसकी शरण में जाता है, वह धीरे धीरे वैसा ही बनने लगता है। वह उसके गुणों को आत्मसात कर लेता है । जब शरण समर्पण बनती है तो अहं का विसर्जन हो जाता है, जिससे व्यक्तित्व का रूपान्तरण सम्भव होता है । इस प्रकार का व्यक्ति आत्मा के आलोक में जीता है और सदैव लोक-कल्याण में संलग्न रहता है ।
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