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________________ 33 जैनन्यायपञ्चाशती किसी वस्तु के प्रत्यक्ष का बाधक होता है, इस सिद्धान्त के अनुसार दूरवर्ती अक्षर ही चक्षु से देखे जा सकते हैं । इस स्थिति में यह कथन भी व्यर्थ ही है कि चक्षु प्राप्यकारी इन्द्रिय है । जो चक्षु अक्षरों को प्राप्त करके भी उनका प्रकाशन नहीं करता वह चक्षु अन्य वस्तु को प्राप्त कर उसका प्रकाशन करेगा, यह कहना अयुक्त ही है, इसका सार यही है । 1 यहां यह आशंका होती है कि जिस वस्तु का अत्यन्त सामीप्य यदि उस वस्तु के प्रत्यक्ष का बाधक है तो समीपस्थ घट भी चक्षु के द्वारा नहीं देखा जाना चाहिए। किन्तु यहां इसके विपरीत होता है। वहां समीपस्थ घट तो देखा ही जाता है, समीपस्थ अक्षर ही क्यों नहीं देखे जाते? इसका क्या कारण है? यह एक जिज्ञासा है । इसके समाधान में यहां यह जानना चाहिए कि समीपस्थ सूक्ष्म वस्तुएं चक्षु से नहीं देखी जाती, स्थूल घट-पट आदि तो देखे ही जाते हैं । तैजस चक्षु से बाहर निकलने वाली तैजस रश्मियां जैसे घट को व्याप्त करती हैं वैसे अक्षरों को नहीं करती। अक्षरों की अति समीपता ही तैजस रश्मियों के संयोग होने में बाधक है, इसलिए घट चाहे दूर हो अथवा निकट हो वह चक्षु के द्वारा देखा जाता है, समीपस्थ अक्षर उससे नहीं देखे जा सकते। किसी भी वस्तु के देखे जाने अथवा नहीं देखे जाने का विवेचन इस रीति से होता है 'अतिदूरात् सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थात् । सौक्ष्म्याद् व्यवधानादऽभिभवात् समानाभिहाराच्च ॥' 1 इस श्लोक के अनुसार आठ कारण वस्तुप्रत्यक्ष के बाधक हैं । वे इस प्रकार हैं – अतिदूरता, समीपता, इन्द्रियघात, मन की चंचलता, सूक्ष्मता, वस्तु का अवरोध, अभिभव (जैसे दीपक के प्रकाश का विद्युत् के प्रकाश से दब जाना), समानाभिहार (सदृश वस्तु में सदृश पदार्थ का मिल जाना, जैसे दूध में पानी का मिश्रण ) । ( १७ ) साम्प्रतं प्रकारान्तरेण चक्षुषः प्राप्यकारित्वं निराकरोति अब दूसरे प्रकार से चक्षु के प्राप्यकारित्व का निराकरण कर रहे हैं - चतुर्णां गोचरा यावत् पार्श्वस्थास्तावदेव हि । तत्प्राकर्ण्य तथा नास्य कथं तत्प्राप्यकारिता?१७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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