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जैनन्यायपञ्चाशती न्यायप्रकाशिका
अर्थान् प्रकाशयत् अपि ज्ञानम् तदात्मकम् न भवति। ज्ञानेन अर्थाः प्रकाश्यन्ते, किन्तु एतावता ज्ञानम् अर्थात्मकम् न भवति। अर्थाः जडपदार्थाः सन्ति, ज्ञानम् तु चेतनात्मकम् स्वपरप्रकाशि भवति। तत् स्वपरप्रकाशकं ज्ञानम् जडपदार्थात्मकं कथं भवेत्? तस्मात् दीप इव ज्ञानमपि अर्थात्मकम् नैव भवति। प्रकाशकः प्रकाश्यः कथं स्यात्? प्रकाश्यरूपताम् कदापि न याति। उभयोः स्वरूपं भिन्न भिन्नमस्ति। दीपो यद्यपि जडीभूतपदार्थोऽस्ति तथापि स घटपटादीन् पदार्थान् प्रकाशयति एव। तस्य जडत्वं तस्य प्रकाशकत्वे बाधकम् न भवति। एतविपरीतं ज्ञानं तु चेतनात्मकं भवति। यद्यपि दीपेन सह ज्ञानस्य पूर्णं सादृश्यं नास्ति दीपस्य जडत्वात् ज्ञानस्य च चेतनत्वात्, तथापि अर्थप्रकाशकत्वम् उभयोस्तुल्यमेव अस्ति। अस्यां स्थितौ यथा प्रकाशकः दीपः पदार्थरूपताम् नोपैति तथैव चेतनात्मकं ज्ञानं कथं पदार्थरूपताम् यायात्? तस्मात् दीप इव ज्ञानस्यापि पदार्थान्तरप्रकाशकत्वम् युक्तमेव।
अर्थों (पदार्थों) को प्रकाशित करता हुआ भी ज्ञान तदात्मक नहीं होता। ज्ञान से अर्थों का प्रकाशन होता है, किन्तु इतने से ज्ञान अर्थात्मक नहीं होता। अर्थ जड़ पदार्थ हैं और ज्ञान चेतनात्मक है। ज्ञान स्व-पर-प्रकाशी होता है। स्व-पर का प्रकाशक वह ज्ञान जड़पदार्थ कैसे हो सकता है? इसलिए दीप की भांति ज्ञान भी अर्थात्मक नहीं होता। जो प्रकाशक है वह प्रकाश्य कैसे बन सकता है? वह प्रकाश्यरूपता को कभी प्राप्त नहीं करता। दोनों (प्रकाशक और प्रकाश्य) का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। दीप यद्यपि जड़तत्त्व है फिर भी वह घट-पट आदि पदार्थों को प्रकाशित करता ही है। उसकी जड़ता उसके प्रकाशकत्व में बाधक नहीं होती। इसके विपरीत ज्ञान तो चेतनात्मक होता है। यद्यपि दीप के साथ ज्ञान का पूर्ण सादृश्य नहीं है, क्योंकि दीप जड़ है और ज्ञान चेतन है। फिर भी अर्थप्रकाशकत्व दोनों का तुल्य है। इस स्थिति में जैसे प्रकाशक दीप पदार्थ नहीं बनता वैसे ही चेतनात्मक ज्ञान कैसे पदार्थ बन सकता है? इसलिए दीप की भांति ज्ञान का भी दूसरे पदार्थों का प्रकाशन करना युक्त ही है।
इदानीं सन्निकर्षस्य प्रमाणत्वं निराकर्तुमुपक्रमतेअब सन्निकर्ष के प्रमाणत्व का निराकरण कर रहे हैं
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