________________
-
जैनन्यायपञ्चाशती मेरे गुरु आचार्य श्रीतुलसी ने मेरे हृदयांगण में जिस शारदा-सरस्वती का आधान किया है, मैं उन गुरु तुलसी का स्मरण कर उसी शारदा का उपयोग कर रहा हूं।
(२) प्रमाणप्रमेयादिचतुरङ्गसमन्विते न्यायशास्त्रे महती उपादेयता प्रमाणानाम्। किञ्च 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद् हि' इत्याप्तोक्त्या प्रमेयाणां सिद्धिः-ज्ञप्तिः प्रमाणादेव भवति। तत एव च हानोपादेयबुद्धयो जायन्ते इति प्रमाणानां नान्तरीयकतामवेक्ष्य तल्लक्षयन् कारिकामवतारयति
न्यायशास्त्र के चार अंग होते हैं-प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति। उसमें प्रमाण की महती उपादेयता होती है, क्योंकि प्रमेय की सिद्धि प्रमाण से ही होती है, यह आप्तोक्ति है। क्या हेय है और क्या उपादेय है- इस प्रकार का विवेक उसी से होता है। इसी उद्देश्य से प्रमाण के लक्षण की आवश्यकता को दृष्टिगत कर ग्रन्थकार कारिका को लिख रहे हैं
स्वपरव्यवसाय्येव ज्ञानं प्रमाणमुच्यते। ..
प्रमाणं ज्ञानमेव स्याद्धेयादेयविवेचनात्॥२॥ स्व-पर-व्यवसायी-स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है। हेय और आदेय का विवेचन ज्ञान के द्वारा ही होता है, इसलिये ज्ञान ही प्रमाण है। न्यायप्रकाशिका
प्रमाणं भवति प्रमेयज्ञापकमिति एक तथ्यम्। तच्च प्रमाणं किं स्वरूपमिति प्रतिपादयितुकाम आचार्यो ब्रूते-स्वस्य-आत्मनः परस्यवस्तुनोऽर्थस्य च निश्चायकं ज्ञानमेव प्रमाणम्। स्वयं प्रकाशमानं सत् यत् परमपि प्रकाशयति तत् स्वपरप्रकाशकं ज्ञानमेव प्रमाणम्। स्वप्रकाशकत्वे सति स्वेतरप्रकाशकत्वं प्रमाणत्वमिति भावः। अत्र स्वपदेन प्रमाणस्य ग्रहणं तथा परपदेन प्रमाणेतरस्य वस्तुनो घटपटाद्यर्थस्य ग्रहणं कर्त्तव्यमिति भावः।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org