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जैनन्यायपञ्चाशती
लक्षणाभास इति वेदितव्यम् । यथा 'गोर्लक्षणं यदि क्रियते' एकशफवत्वं गोर्लक्षणमिति तदेदं लक्षणं गोमात्रे न यास्यति । कारणं च इदमत्र यत् गोः शफः - खुरो द्विधाविभक्तो भवति । न च गोरेको शफो भवति कदाचित् । अतो लक्षणमिदं लक्ष्यमात्रे नैव गच्छतीति असम्भवीलक्षणाभासोऽयम् । एवमेव पुद्गलस्य लक्षणं क्रियते यदि 'चैतन्यं पुद्गलस्य लक्षण-मिति' तदेदमपि लक्षणम् असम्भवी लक्षणाभास एव । तस्मात् कस्यापि वस्तुनो लक्षणं तादृशं विधेयं यत् लक्षणा-भासरहितं विशुद्धं स्यात् ।
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सम्मिलित अनेक पदार्थों के बीच एक पदार्थ को अन्य पदार्थों से पृथक् करना लक्षण का प्रयोजन है । लक्षण के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जानकर ही व्यवहार किया जा सकता है। लक्षण के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता और पदार्थ के ज्ञान के अभाव में उससे व्यवहार भी नहीं हो सकता इसलिये पदार्थों का लक्षण अत्यावश्यक है। जैसे जैनदर्शन में जीव अजीव आदि नौ पदार्थों के अन्तर्गत जीव पदार्थ का लक्षण किया गया है कि " चेतनालक्षणो जीवः " अर्थात् चैतन्य ही जीव का लक्षण है। जीव के इस लक्षण के द्वारा जीव पदार्थ अजीव आदि पदार्थों से पृथक् हो जाता है। इस लक्षण वाला जीव ही जीवत्व के व्यवहार का साधक होता है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि लक्षण के द्वारा एक पदार्थ पदार्थान्तर से पृथक् होकर व्यवहार का साधक होता है। इसीलिये कहा जाता है कि ' व्यावृत्ति र्व्यवहारो वा लक्षणस्य प्रयोजनम्' इसी आधार पर कहा जाता है कि 'जीवः अजीवादिपदार्थभिन्नः चेतनावत्वात् ' - इस प्रकार जीव का अजीवादि पदार्थों से पार्थक्य होता है। न्यायदर्शन में पृथ्वी का लक्षण इस प्रकार किया गया है कि "गन्धवती पृथ्वी" यहां पृथ्वी लक्ष्य है और गन्धवत्व उसका लक्षण है। इस लक्षण से पृथ्वी अन्य पदार्थों से पृथक् की जाती है। यहां इस प्रकार का वाक्य प्रयोग होता है कि पृथ्वी इतरभिन्ना गन्धवत्वात् । इसी प्रकार किसी भी पदार्थ का पदार्थान्तर से पृथक् करना व्यवहार का प्रयोजक होता है ।
लक्षण के इस प्रसंग में लक्षणाभास के ऊपर भी विचार किया गया है। जिस प्रकार हेतु न होने पर भी जो हेतु की भांति प्रतीत हो उन्हें हेत्वाभास कहते हैं उसी प्रकार जो लक्षण न होते हुए भी लक्षण की भांति प्रतीत हो उन्हें
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