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________________ चित्र में इस कथा से सम्बन्धित दो दृश्य प्रदर्शित किये गये हैं। ऊपरी भाग में मुनि धनगिरि को भद्रासन में बैठे हुए दिखाया गया है और उसके स्थापनाचार्य है। सुनंदा अपने पति को बालक उपहार दे रही है। नीचे के भाग में बांयी ओर बालक वज्र तथा दांयी ओर चार साध्वियां सूत्रों का गायन करते हुए प्रदर्शित की गई है। (12) द्वादशवर्षीय अकाल : एक दिन आर्य वज्र कफ के उपशमन के उद्देश्य से कान पर रखी सोंठ प्रतिक्रमण के समय भूमि पर गिर गयी। इस प्रमाद से अपनी मृत्यु निकट जानकर आर्य वज्र ने अपने शिष्यों से कहा कि अब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा, जिस दिन मूल्यवान भोजन तुम्हें भिक्षा में मिले उसके अगले ही दिन सुबह ही सुभिक्ष हो जावेगा । इतना कहकर वज्रसेन उस स्थान से विहार कर गये और रथावर्त पर्वत पर वज्रसेन निर्वाण को प्राप्त हुए। आर्य वज्र की भविष्यवाणी के अनुसार एक दिन जैन साधुओं को मूल्यवान भोजन मिला और उसके अगले ही दिन से सुभिक्ष हो गया। उपर्युक्त कथानक से सम्बन्धित तीन घटनाओं का अंकन इस चित्र में किया गया है। मध्य भाग में चक्रस्वामी बैठे हुए हैं, बायी ओर दो साधुओं को विद्यापिण्ड देते हुए बताया गया है। ऊपरी भाग में तीन जैन साधु कायोत्सर्ग मुद्रा में देवलोक जाने के लिये अनशन करते हुए प्रदर्शित किये गये हैं। नीचे के भाग में बायी ओर दो जन साधुओं को ईश्वर के द्वारा भोजन देते हुए प्रदर्शित किया गया है। (13) धार्मिक ग्रंथ लेखन : चित्र में दो घटनाओं को प्रदर्शित किया गया है। ऊपरी भाग में बायी ओर देवर्द्धिगणि ताड़पत्र पर लिखते हुए प्रदर्शित किये गये हैं। दायी ओर दो जैन साधु बैठे हैं। नीचे के भाग में बायी ओर देवद्धिगणि ग्रंथ को ठीक करते हुए दिखाये गये हैं तथा दायी ओर उनके शिष्य दवात लिये बैठे हैं। (14) साधु के आचरण के नियम : चित्र के ऊपरी भाग में एक स्त्री चित्रित है। यह इस बात का द्योतक है कि साधु को उस भवन में नहीं रहना चाहिये जिसमें स्त्रियों के चित्र बने हों। नीचे के भाग में श्रावक एक साधु को भोजन देते हुए प्रदर्शित है साथ ही तीन बर्तन और सिगड़ी भी दिखायी गयी है जो इस बात का निर्देश देता है कि जैन साधु को ताजा भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिये । प्राचार्य भंवरलाल लुणिया के अनुसार सन 1436 में तैयार की गई जैन ग्रन्थों की एक. प्रतिलिपि उपलब्ध है। इस ग्रंथ के पृष्ठों पर उनके विषय से सम्बन्धित गाथाओं के चित्र बड़े आकर्षक रंगों में चित्रित किये हैं। ग्रंथ के पृष्ठों के किनारे फूल-पत्तियों और बैल-बूटों से चित्रित किये जाते थे। इनमें लाल, पीले, Jain Education International For Personal & Private Use Only 85 www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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