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________________ (2) तीर्थंकर प्रतिमा : तीर्थंकर की यह द्वितीय प्रतिमा के 6 फुट के लगभग ऊंची है, इस समय वहां के पंचायत कार्यालय के समीप स्थित है। उपर्युक्त प्रतिमा की भांति इसमें भी तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। मूर्ति के शीश के पीछे प्रभावली भी खण्डित हो गई है। इसके दोनों ही और कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े तीर्थंकरों के मध्य ध्यान मुद्रा में बैठे अन्य तीर्थंकरों के लघु चित्रण उत्कीर्ण है। मुख्य प्रतिमा के पैरों के पास चंवरधारी सेवक मूर्त है। (3) पार्श्वनाथ : जैनियों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा त्रिछत्र के नीचे सर्प के सात फणों की छाया में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है। सर्प के फण भगवान का मुख तथा उनके हाथों की उंगलियां आदि टूट गये हैं। शीश के दोनों ओर उड़ते हुए मालाधारी गंधर्व है जिनके ऊपरी एवं निचले भागों में ध्यानस्थ तीर्थंकरों की लघु प्रतिमाएं हैं। पैरों के समीप चंवरधारी सेवकों के साथ उनके यक्ष तथा यक्षी धरणेन्द्र एवं पद्मावती का भी सुन्दर अंकन किया गया है। (4) चक्रेश्वरी : प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की शासनदेवी चक्रेश्वरी की यह अद्वितीय प्रतिमा गंधावल से प्राप्त जैन प्रतिमाओं के विशेष स्थान रखती है। प्रस्तुत प्रतिमा के बीस हाथों में से अधिकतर हाथ खण्डित हो गये हैं। किन्तु शेष हाथों में अन्य आयुधों के साथ दो हाथों में चक्र पूर्ण रूप से स्पष्ट है जिनके पकड़ने का ढंग विशेष ध्यान देने योग्य है। प्रतिमा अनेक आभूषणों से सुसज्जित है। शीश के पीछे प्रभामंडल है जिसके दोनों ओर विद्याधर युगल निर्मित है। प्रतिमा के ऊपरी भाग में बनी पांच ताकों में तीर्थंकरों की ध्यानस्थ प्रतिमाएं हैं। इनके दाहिने पैर के समीप वाहन गरुड़ अपने बाये हाथ में सर्प पकड़े हुए है और बाई ओर एक सेविका की खण्डित प्रतिमा है। (5) अम्बिका : अम्बिका तीर्थंकर नेमिनाथ की यक्षिणी है। अभाग्यवश इस सुंदर एवं कलात्मक प्रतिमा का अब केवल ऊपर का भाग ही शेष बचा है। वह कानों में पत्र कुण्डल तथा गले में हार पहिने है। अम्बिका अपने दाहिने हाथ में, जो पूर्ण रूप से खण्डित हो चुका है, सम्भवतः आम्रलुम्बी पकड़े थी और बाया हाथ जिसमें एक बालक था, का कुछ भाग बचा है। आम्रवृक्ष जिसके नीचे अम्बिका का चित्रण है, पर आम के फलों के साथ उसके खाने वाले वानरों को भी स्पष्ट दिखाया गया है। प्रतिमा के एकदम ऊपरी भागों में शीश रहित ध्यान मुद्रा में तीर्थंकर की प्रतिमा है जिनके दोनों ओर मालाधारी विद्याधर अंकित है। यह मूर्ति पूर्ण होने पर कितनी सुन्दर रही होगी इसकी अब केवल कल्पना ही की जा सकती है। भानपुरा की समतल भूमि के पास ही जहां से नवाली को गाड़ी का मार्ग जाता है, चैनपुरा नामक एक गांव है। यहां से कुछ दूरी पर एक दीर्घकाय दिगम्बर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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