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तीर्थरूप में वर्णन किया है। . . बैसनगर में इस युग के जैन मंदिर होने की सम्भावना श्री डी.आर.पाटिल ने व्यक्त की है।
राजपूत काल : राजपूत काल मालवा में जैनधर्म की उन्नति का मूर्धन्य काल है जैसा प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर प्रमाणित होता है। पद्मावती, नरवर, चन्देरी, उज्जैन आदि से मध्यकालीन अवशेष बड़ी संख्या में मिले हैं। विदिशा जिले में बरो या बड़नगर नामक स्थान पर जैन मंदिरों का एक समूह दर्शनीय है। इस मंदिर समूह के बाहर नेमिनाथ की यक्षिणी अम्बिका की एक छः फुट ऊंची मूर्ति रखी है। मंदिर शिखर शैली के हैं जिनका निर्माण परमारों के शासनकाल में हुआ। तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाएं यहां बाद में रखी गई। कुछ मंदिरों के प्रवेशद्वार अत्यंत आकर्षक हैं। द्वार स्तम्भों पर गंगा यमुना की मूर्तियां बनी हुई है। जैन मंदिर समूह के पीछे शिव, सूर्य, लक्ष्मी, भैरव नवग्रह आदि की अनेक मूर्तियां लगी हैं। डॉ.डी.आर.पाटिल ने मध्यभारत में जैनधर्म से संबंधित 89 स्थानों का अस्तित्व बताया है।" चन्देरी तथा बड़वानी एवं अन्य स्थानों पर चट्टानों को काटकर बनाई हुई प्रतिमाओं के प्रमाण भी मिलते हैं। बड़ोद पठारी में विभिन्न प्रकार के पच्चीस जैन चैत्य हैं। अनुमान है कि इनका निर्माण नवीं शती से 12वीं शती के मध्य हुआ होगा। जैनियों के चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां इनमें स्थापित हैं। कुछ मंदिर गुम्बद वाले हैं, कुछ पर चौरस छते हैं। दक्षिण दिशा की पंक्ति में मुख्य देवालय के अतिरिक्त कुछ अन्य देवालयों पर भी शिखर हैं। दो तीन मंदिरों पर ग्यारहवीं शताब्दी के संस्कृत अभिलेख हैं, जो यात्रियों द्वारा उत्कीर्णित हैं। ग्यारसपुर में उपलब्ध जैन मंदिर अपने मूलरूप में अन्य धर्म से सम्बन्धित थे, किन्तु जैन धर्मावलम्बियों ने बाद में उन पर अपना अधिकार कर लिया। ग्यारसपुर में प्राप्त जैन मंदिर के भग्नावशेष मालवा में प्राप्त अन्य जैन मंदिरों के भग्नवावशेषों से प्राचीन है। यहां के मंदिरों का मण्डप विद्यमान है और विन्यास एवं स्तम्भों की रचना शैली खजुराहों के समान है। फर्गुसन ने इनका निर्माण काल 10वीं शताब्दी के पूर्व निर्धारित किया है। यही पर एक और मंदिर के अवशेष मिले थे किन्तु उस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ तो उसने अपनी मौलिकता ही खो दी। फर्गुसन के मतानुसार ग्यारसपुर के आसपास के समस्त प्रदेश में इतने भग्नावशेष विद्यमान है कि यदि उनका विधिवत संकलन एवं अध्ययन किया जाय तो भारतीय वास्तुकला और विशेषतः जैन वास्तुकला के इतिहास के बड़े रिक्त स्थान की पूर्ति की जा सकती है। 20 - खजुराहो शैली के ही कुछ जैन मंदिर 'ऊन' नामक स्थान पर प्राप्त हुए हैं।
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